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________________ वीर निर्वाण से देवद्धि-काल तक ] [ ३१ करता है, कोड़े आदि से ताड़ना करता है, संताप पहुंचाता है, क्लेश उत्पन्न करता है अथवा किसी प्रकार का उपद्रव करता है, यहां तक कि, यदि कोई मेरा एक रोम भी उखाड़ता है, तो मैं उस हिसाकारी दुःख को भयजनक अनुभव करता हूं।" इसी प्रकार अपने अनुभव के आधार पर प्रत्येक व्यक्ति को सदैव यह भली-भांति समझना चाहिये कि सभी प्रारण-भूत-जीव एवं सत्त्व भी डण्डे आदि से पीटे जाने पर, आहत किये जाने पर, धमकाये जाने पर, अशन-पान को रोककर परितप्त किये जाने पर, सताये अथवा उद्विग्न किये जाने पर, यहां तक कि एक बाल के उखाड़ने पर भी दुःख का अनुभव करते है । जैसे ताड़न-तर्जन आदि से मुझे दुःख होता है, ठीक उसी प्रकार अन्य प्राणियों को भी दुःख होता है। यह भलीभांति जानकर, समझकर किसी भी प्राण-भूत-जीव एवं सत्त्व को न कभी मारना चाहिये, न किसी अन्य द्वारा मरवाना चाहिये, न बलपूर्वक पकड़ना चाहिये, न परिताप देना चाहिये और न उन पर किसी प्रकार का प्राणापहारी अथवा दुःखप्रद उपद्रव हो करना चाहिये । जैसा कि आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है :न धर्म हेतुविहितापि हिंसा, नोत्सृष्टमन्यार्थमपोद्यते च । स्वपुत्रघाताद् नृपतित्वलिप्सा, ___स ब्रह्मचारिस्फुरितं परेषाम् ।।११।। स्याद्वाद मंजरी ।। हिसा करने वाले और प्राण-भत-जीव एवं सत्त्व की हिसा का उपदेश करने वाले संसार की विभिन्न योनियों में छेदन-भेदन प्राप्त करते, विविध वेदनाओं और कष्टों को अनुभव करते हुए अनादि अनन्त चतुर्गतिक संसार में परिभ्रमण करेंगे। जैसा कि कहा है : ___तत्थ रणं जे ते समणा माहणा एवमाइक्खंति जाव परूवेंति-- सव्वे पारणा जाव सव्वे सत्ता हंतव्वा....... ते आगन्तु छेयाए....... जाव ते प्रागंतु जाइ जरा मरण जोरिणजम्मण"......... भज्जो भूज्जो अपरियट्टिस्संति"...."रणो बुझिस्संति जाव णो सव्व दुक्खारणं अंत करिस्संति, एस तुला....।'' इस प्रकार जान कर मेधावी पुरुष स्वयं पटकाय के जीवों को हिंसा करे नहीं. करवावे नहीं, करने वाले को भला ममझे नहीं। जिमको पटकाय के जीवों को हिमा का यह रूप ज्ञात है, वही परिजातकर्मा मुनि है । जैसा कि कहा है :... "तं परिणाय मेहावी, गणेव सयं छज्जीवरिणकाय-सत्थं समारंभेज्जा, सवण्णेहि छज्जीवगिगकाय-सत्थं समारंभावेज्जा, रोवणणे छज्जीवरिणकाय-सत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा ।''२. ' मूत्र कृतांग, प्र० १ प्राचारांग, अ० १, १-9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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