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वीर निर्वाण से देवद्ध काल तक ]
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सत्यान्वेषी जिज्ञासुत्रों को जैनधर्म की भाव परम्परा एवं इतिहास के इस काल में प्रवर्तित द्रव्य परम्परा का अन्तर ज्ञात हो सके ।
केवल ज्ञान - केवल दर्शन की उपलब्धि के साथ ही भावतीर्थंकर बनने पर प्रभु महावीर ने चतुविध धर्म तीर्थ की स्थापना करते समय संसार को सच्चे धर्म का स्वरूप बताते हुए कहा :
" से बेमि जे अई, जे य पडुप्पन्ना, जे य श्रागमिस्सा अरहंता भगवंता ते सव्वे एवमाइक्खति, एवं भासंति, एवं पण्णविन्ति सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता, न हंतव्वा, न अज्जावेयव्वा, न परिघेत्तव्वा न परियावेयव्वा, न उद्दवेयव्वा । एस धम्मे सुद्ध, निइए, सासए, समिच्च - लोयं खेयन्नेहिं पवेइये, जहा उट्ठिएसु वा, अरगुट्ठियेसु वा उवट्ठिएसु वा श्ररणुवट्ठिएसु वा उवरय दंडेसु वा अणुवरय दंडे वा, सोवहिएसु वा प्रणोवहिएसु वा, संजोगरएसु वा, प्रसंजोगरएसु वा तच्च चेयं, तहा चेयं प्रस्सिं चेयं पवुच्चइ ""
अर्थात् - मैं यह कहता हूं कि अतीत काल में जो अरिहंत भगवंत हो चुके हैं, वर्तमान काल में जो हैं, तथा आगामी काल में जो होंगे, वे सब इस प्रकार कहते हैं, इस प्रकार प्रवचन करते हैं, इस प्रकार प्रज्ञापित करते हैं और इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं- “ सब प्राणी तीन विकलेन्द्रिय, सब भूत (वनस्पति) सब जीव ( पंचेन्द्रिय) और सब सत्त्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु के जीवों) का न मारना चाहिये, न अन्य व्यक्तियों के द्वारा मरवाना चाहिये, न बलात्कार - बलपूर्वक पकड़ना चाहिये, न परिताप देना चाहिये, न उन पर प्रारणापहारी उपद्रव करना चाहिये - यह अहिंसा रूप धर्म ही शुद्ध धर्म है, शाश्वत धर्म है, लोक के षड्जीवनिकाय के जीवों के दुःखों का विचार कर खेदज्ञ पुरुषों ने इसे समझाया है। जैसा कि कहा है- "जो व्यक्ति धर्म को सुनने के लिये उद्यत है अथवा अनुद्यत है, उपस्थित है अथवा अनुपस्थित है, मन, वचन, और काय रूप दण्ड से उपरत है अथवा अनुपरत है, उन सबको यह अहिंसामूलक धर्म सुदाना चाहिये । क्योंकि यह धर्म सत्य है, मोक्षदायक है । इसमें अहिंसामूलक धर्म का अवितथ एवं उत्कृष्ट रूप बताया गया है ।
अहिंसा धर्म के रक्षणार्थ षट्कायिक जीवों को हेतु माना गया है । जैसा कि कहा है
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"भगवया छज्जीवणिकाया हेऊ पण्णत्ता, तं जहा - पुढवीकाए, भाउकाए, तउकाए, वाऊकाए, वरणस्सइकाए, तसकाए । "
धर्माधर्म के ज्ञान से शून्य लोग क्रोध, लोभादिवश या धर्म, अर्थ एवं काम हेतु कभी हिंसा करते हैं, जैन धर्म हिंसा के विभिन्न कारण बताकर उसको अहितकर और अबोध का कारण मानता है, जैसा कि आचारांग सूत्र में कहा है :
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