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________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [८०१ सम्मिलित नहीं था। किन्तु मूलराज ने प्रबन्ध-चिन्तामणि के उल्लेखानुसार राजसिंहासन पर बैठने से पूर्व ही और अन्य अनेक पुष्ट प्रमाणों के अनुसार राजसिंहासन पर आसीन होते ही पाटण राज्य का विस्तार करना प्रारम्भ कर दिया। __ मूलराज के सिंहासन पर आरूढ़ होते ही शाकम्भरी सपादलक्ष के राजा विग्रहराज ने एक बड़ी सेना ले मूलराज पर आक्रमण किया। उसी समय लाट राज्य के शक्तिशाली पश्चिमी चालुक्यवंशी राजा बरपा (गोगिराज का पिता) ने भी पाटण राज्य पर आक्रमण कर दिया। पृथ्वीराजरासो के उल्लेखानुसार मूलराज ने अपने मन्त्रियों के परामर्श पर कन्थादुर्ग में प्राश्रय लिया। मेरुत्ग के अनुसार मन्त्रियों ने मूलराज से कहा कि शाकम्भरी नरेश आश्विन के नवरात्रों के प्रसंग पर अपनी प्राराध्या देवी की उपासना के लिये शाकम्भरी लौट जायगा। उसके लौट जाने पर दुर्ग से निकल कर लाटराज बरपा पर आक्रमण किया जाय । शाकम्भरीराज विग्रहराज को किसी प्रकार इस बात की सूचना मिल गई और उसने अपनी प्राराध्या देवी की मूर्ति को शाकम्भरी से मंगवा कर अपने सैन्य-शिविर में ही शाकम्भरी की रचना कर वहां अपनी पाराध्या देवी की उपासना करने का निश्चय कर लिया। __मूलराज को विदित हा कि विग्रहराज शाकम्भरी नहीं लौटेगा तो उसने अपने चार हजार सैनिकों को प्राज्ञा दी कि वे रात्रि के समय प्रच्छन्न रूप से विग्रहराज के सैन्य शिविर के चारों ओर कुछ दूरी पर सतर्क रहें। अपने चने हए सैनिकों को इस प्रकार का आदेश दे मूलराज एक सौ कोस के पल्ले की अर्थात् बिना विश्राम के दौड़ते हुए सौ कोस की दूरी पर जाकर पुन: अपने लक्ष्यस्थल पर पहुंच जाने की अद्भुत क्षमता वाली सांडनी (ऊंटनी) पर प्रारूढ़ हो मूलराज एकाकी ही शत्रु के सैन्यशिविर में प्रविष्ट हो विग्रहराज के सम्मुख जा धमका। उसने विग्रहराज से कहा- "मैं मूलराज हूं, तुम्हें यह कहने पाया हूं कि जब तक मैं लाट के राजा को परास्त न कर दूं तब तक तुम मेरे राज्य की राजधानी की ओर प्रांख तक न उठाना। यह बात तुम्हें स्वीकार हो तो ठीक अन्यथा मेरी सेना तुम्हारे शिविर को चारों ओर से घेरे खड़ी हुई मेरे इंगित की प्रतीक्षा कर रही है ।" विग्रहराज ने आश्चर्य भरे स्वर में कहा-"तुम मूलराज हो । मैं तुम्हारे अद्भुत् साहस और अलौकिक शौर्य पर मुग्ध हूं कि एक राज्य के स्वामी होकर भी एक सामान्य सैनिक की भांति शत्रु के सैन्यशिविर में एकाकी ही प्रविष्ट हो गये हो। तुम्हारे इस शौर्य ने मुझे ऐसा प्रभावित किया है कि मैं जीवनभर तुम्हारे जैसे शूरवीर से मैत्री रखने का आकांक्षी हो गया हूं। आनो हम दोनों साथ बैठकर भोजन करें।" मूलराज ने भोजन का निमन्त्रण अस्वीकार करते हुए कहा- "मुझे इसी समय लाट की सेनाओं पर आक्रमण करना है।" वह तत्क्षण अपनी सांडणी पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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