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________________ ८०२ ] [ जैन धर्म का मोलिक इतिहास-भाग ३ सवार हा । अपनी सेना के साथ लाटराज बरपा के सैन्य शिविर की ओर वाल वेग से बढ़ते हुए मूलराज ने उस पर भीषण आक्रमण कर दिया। शत्रु सेना का संहार करते हुए मूलराज लाटराज बरपा की ओर बढ़ा और भाले के एक भरपूर प्रहार से बरपा का प्राणान्त कर उसे धराशायी कर दिया। मूलराज ने लाट राज्य की सेना को पराजित कर उसके १०,००० घोड़ों और हस्तिसेना को लेकर वह पाटण की ओर प्रस्थित हुआ। मूलराज की इस विजय के समाचार सुनते ही विग्रहराज अपनी सेना के साथ अपने शाकम्भरी राज्य की ओर लौट गया। अपनी सैन्यशक्ति को सुदृढ़ करने के अनन्तर मूलराज ने एक विशाल एवं शक्तिशाली सेना के साथ सौराष्ट्र के राजा ग्राहऋपु (ग्राहारि) पर आक्रमण करने के लिये विजया-दशमी के दिन अनहिलपुरपत्तन से प्रस्थान किया। जब वह जम्बुमाली वन में पहुंचा, उस समय ग्राहऋपु ने मूलराज के पास अपना दूत भेजकर निवेदन किया कि उन दोनों के बीच किसी प्रकार की शत्रुता नहीं है। अतः मूलराज अपनी सेना के साथ अपनी राजधानी को लोट जाय । मूलराज ने ग्राहऋपु को उसके दूत के साथ यह संदेश भिजवाया कि - "ग्राहऋपु बड़ा ही दुराचारी, दुष्ट और पर स्त्रीगामी है । वह तीर्थयात्रियों को लटता और पवित्र उज्जयन्त पर्वत पर चमरी गाय आदि निरीह पशुओं को मारता है, उसने प्रभास जैसे पवित्र तीर्थस्थान को नष्टभ्रष्ट किया है। इस प्रकार के उसके ये सब म्लेच्छाचार इसी कारण हैं कि वह एक म्लेच्छ स्त्री से उत्पन्न हुआ है। ऐसी स्थिति में उसे कभी क्षमा नहीं किया जा सकता।" ___अपने सन्धि प्रस्ताव को मूलराज द्वारा ठुकरा दिये जाने पर ग्राहऋपु ने युद्ध के लिए तैयारियां प्रारम्भ कर दी । मूलराज ने उस पर आक्रमण किया। दोनों पक्षों की ओर से अनेक राजाओं ने उस युद्ध में भाग लिया। जिस समय दोनों पक्षों के बीच युद्ध निर्णायक स्थिति में चल रहा था, उस समय तुरुष्कराज अपनी टिड्डी दल तुल्य विशाल सेना के साथ ग्राहऋपु की सहायता के लिये रणांगण में प्रा उपस्थित हुआ। दोनों ओर से बड़ा ही भयंकर संहारक युद्ध हुआ । मूलराज और उसके साथी राजारों रेवतमित्र, शैलप्रस्थ, महित्रात, सप्तकाशी नरेश, श्रीमाल के परमार राज, भिल्लराज आदि ने अद्भुत शौर्य और साहस के साथ युद्ध किया। अति भीषरण और लम्बे युद्ध में ग्राहऋपु और उसके पक्षधरों की सेनाओं का बहुत बड़ा भाग यमधाम पहुंचा दिया गया और शेष सेना छिन्न-भिन्न हो रणक्षेत्र से पलायन करने लगी। मूलराज ने ग्राहऋपू की अोर सिंह की भांति झपटते हुए उस पर भीपण भल्ल प्रहार कर उसे आहत कर बन्दी बना लिया। मूलराज की अन्तिम रूप से विजय हुई और उसने समस्त सौराष्ट्र मण्डल पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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