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________________ ५०० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३ (२) सोमेश्वर ने अपनी रचना कीर्तिकौमुदी और दमोई के प्रशस्तिलेख में लिखा है :- एक यशस्वी विजेता के सभी गुणों से समलंकृत मूलराज ने अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त की और गुजरात के राजानों की संरक्षिका राज्यलक्ष्मी स्वेच्छा से मूलराज नववधु बन गई । ( ३ ) सोमेश्वर ने अपनी कृति 'सुरथोत्सव' में लिखा है - मूलराज ने सोला नामक कर्मकाण्डी धर्मिष्ठ विद्वान् को अपना राजपुरोहित बनाया ? १ इन सब पुरातात्विक प्रमारणों से यही सिद्ध होता है कि मूलराज ने अपने भुजबल से 'बलात् अणहिलपुरपत्तन के राजसिंहासन पर अधिकार किया । वड़नगर की प्रशस्ति में उल्लिखित - उसने चापोत्कट राजवंश के राजकुमारों के ( सुन्दर) भाग्य का निर्माण किया, जिन्हें कि उसने पहले बन्दी बना लिया था, इस वाक्य से यह आभास होता है कि मूलराज ने प्रणहिलपुरपत्तन के राजसिंहासन पर अधिकार करते समय चापोत्कट वंशीय राजकुमारों की भांति चापोत्कट ( चावड़ा) राजवंश के अन्तिम राजा सामन्तसिंह ( अपने मामा ) को भी बन्दी बना लिया हो, अथवा उसका वध कर दिया हो । ने सोलंकियों के मान्य कवि हेमचन्द्राचार्य और सोमेश्वर ने अपनी कृतियों में मूलराज की भूरि-भूरि प्रशंसा की है किन्तु इस विषय पर एक शब्द तक नहीं लिखा है कि मूलराज ने पाटण पर अपना प्रभुत्व किस प्रकार स्थापित किया । मूलराज राजसिंहासन पर ग्रासीन होते ही कर-भार को बड़ी मात्रा में हल्का कर अपनी प्रजा का स्नेह प्राप्त करने का प्रयास किया, इससे भी यही अनुमान किया जाता है। कि उसने ( मूलराज ने ) सम्भवतः अपने मामा को बन्दी बना लिया हो अथवा उसका वध कर दिया हो और प्रजा को अपने पक्ष में करने के लिये उसने करों में भारी कमी की हो । १ इन सब तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर यह तो स्पष्टतः सिद्ध हो जाता है कि मूलराज को चापोत्कट राजा ने स्वेच्छा से अथवा शान्तिपूर्वक अपना राज्य नहीं दिया था, अपितु मूलराज ने अपने भुजबल अथवा बुद्धिबल से उस पर बलात् अधिकार किया था । जिस समय मूलराज राहिलपुरपत्तन के राजसिंहासन पर बैठा, उस समय चावड़ा राज्य केवल सारस्वत मण्डल तक ही सीमित था, जिसमें कि मेहसाना, राधनपुर और पालनपुर के क्षेत्र ही थे । डेहगाम ताल्लुका उस राज्य की सीमा में चालुक्याज ग्राफ गुजरात, भारतीय विद्याभवन, बम्बई, पृष्ठ २४ Jain Education International For Private, & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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