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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
[ ७६५ राजपरिवार और प्रजा-सभी दर्शक वर्ग झूम उठे। साधु, साधु ! अद्भुत ! अतीव सुन्दर ! सारू छे ! सारूछे ! के गगन भेदी घोषों से दिग्दिगंत प्रकम्पित एवं प्रतिध्वनित हो उठे । सबके मनकुसुम पूर्णतः प्रफुल्लित हो उठे।
समारोह की समाप्ति पर सामन्तसिंह ने क्षत्रियकिशोर राजी को अपने बाहुपाश में प्राबद्ध कर लिया । वह राजी और उसके दोनों भाइयों को अपने साथ राजमहलों में ले गया और अपने पास ही रखने लगा। अब तो राजी राजदुलारा और प्रजाजनों की प्रांखों का तारा बन गया ।
राजी के प्राजानुभुजदण्ड, शैलशिलानिभ विशाल वक्षस्थल, मौक्तिकों जैसी चमक से ओतप्रोत मनोहारि आयत लोचन युगल समुन्नत सुविशाल भाल और सिंहशावक जैसी शौर्यपूर्ण चालढाल आदि क्षत्रियोचित गुणों से राजा एवं राजपरिवार को एवं राज-मन्त्रियों आदि को विश्वास हो गया कि यह उच्च कुलीन भुयडराजवंशीय मुजाल देव का राजकुमार है तो सामन्तसिंह की सहोदरा राजकुमारी लीलादेवी के साथ उसका विवाह कर दिया गया। राज-जामाता राजी सुखपूर्वक प्रणहिल्लपुर पाटण के राजप्रासादों में रहने लगा। समय पर लीलादेवी गर्भवती हुई। राजपरिवार में हर्ष की लहर सी दौड़ गई। प्रसवकाल आने पर प्रसव से पूर्व ही लीलादेवी का सहसा देहावसान हो गया । निष्प्राणा गर्भवती लीला देवी के उदर को तत्काल चीर कर गर्भस्थ शिशु को जीवितावस्था में ही निकाल लिया गया । उदीयमान अरुण वरुण के समान बालक को देख कर शोकसागर में निमग्न राजपरिवार को एक प्राशासम्बल मिला।
बालक का जन्म मूला नक्षत्र में हुआ था, इसलिये उसका नाम मूलराज रखा गया । मूला नक्षत्र में उत्पन्न बालक मूलराज के सम्बन्ध में ज्योतिविदों ने बताया
मूलार्कः श्रू यते शास्त्रे सर्वकल्याणकारकः । अधुना मूलराजेन, योगश्चित्रं प्रशस्यते ।
चापोत्कट राजा सामन्तसिंह ने अपने भागिनेय शिशु मूलराज का बड़े दुलार से पुत्र की भांति लालन-पालन किया और शिक्षा योग्य वय में उसे राजकुमारोचित सभी विद्याओं की सुयोग्य विद्याविशारदों से शिक्षा दिलवाई। किशोर वय में प्रवेश करते ही साहसपुज मूलराज अपने मामा सामन्तसिंह की राजकार्यों में सहायता करने लगा। युवा वय में प्रवेश करते-करते तो मूलराज ने अनेक साहसिक कार्य कर अणहिल्लपुरपट्टण राज्य की सीमाओं का विस्तार करना प्रारम्भ कर दिया और उसके अद्भुत पराक्रम की ख्याति चारों ओर फैल गई।
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