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________________ ७९४ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ ईसा की १० वीं शताब्दी के चार चरणों में से प्रथम चरण में जिस समय चापोत्कट राजवंश के संस्थापक वनराज चावड़ा के नृपवंश का अन्तिम राजा सामन्तसिंह अणहिलपुरपट्टन के राजसिंहासन पर आसीन था, उस समय राजी, बीज और दंडक नामक तीन क्षत्रिय किशोर अपने निवासस्थल से सोमनाथ की यात्रा के लिये प्रस्थित हुए। सोमनाथ की यात्रा के पश्चात् अपने निवासस्थल (जन्मस्थान) की ओर लौटते समय वे अहिलपुरपट्टन में रुके । जब उन्होंने सुना कि एक त्यौहार के उपलक्ष में राजकीय ठाट-बाट के साथ अश्वारोहण कला का प्रदर्शन हो रहा है और उसे देखने के लिये जनसमूह प्रदर्शन-स्थल की ओर उमड़ रहा है, तो वे तीनों भाई भी गुजरात की अश्वारोहण कला को देखने के लिये मेले में पहुंचे । घुड़दौड़, सरपट दौड़ते हुए घोड़े की पीठ पर बैठे हुए अश्वारोहियों द्वारा भाले से लक्ष्यवेध आदि अनेक प्रकार के चमत्कारपूर्ण प्रदर्शनों के पश्चात् स्वयं राजा सामन्तसिंह एक जात्यश्व पर आरूढ़ हो अपनी अश्वारोहण कला का चमत्कार प्रदर्शित करने आगे आया । जंघाओं के इंगितमात्र से अपना कौशल बताने वाले उस उत्कृष्ट जाति के घोड़े पर जब राजा चाबक का प्रहार करने के लिये उद्यत हा तो क्षत्रिय किशोर राजी बड़े उच्च स्वर में "ऐसे नहीं, ऐसे नहीं" कहता हुआ राजा की ओर बड़े वेग से बढ़ा। एक सौम्य-सुकुमार साहसी युवक को अपनी ओर द्र त वेग से आता हा देख राजा रुका । युवक के पास आने पर उसने उससे बात की और उसके परामर्शानुसार सामन्तसिंह ने अश्वसंचालन किया। राजा और दर्शकों के आश्चर्य का पारावार न रहा कि उस जात्यश्व ने इंगितमात्र पर अनेक प्रकार के अद्भुत करिश्मे बताये। तदनन्तर सामन्तसिंह ने वही अपना अश्व उस नवागन्तुक युवक को सम्हलाते हुये अश्वारोहण की कला प्रदर्शन करने का उससे आग्रह किया। राजाज्ञा को शिरोधार्य कर राजी उस उच्च जाति के अश्व की पीठ पर आरूढ़ हुआ और उसने अपनी अद्भुत अश्वारोहण कला का प्रदर्शन प्रारम्भ किया। घोड़ा भी समझ गया कि उसके योग्य मारोही अब आया है। श्रेष्ठ जाति के अश्व और अश्वविद्या-निष्णात अश्वारोही राजी के सुयोग ने' कुछ ही क्षणों में "सोने में सुगन्ध"-इस सुकोमल सुंदर कल्पना जगत की मदु-मंजुलसुमधुर अननुभूत लोकोक्ति को अक्षरशः चरितार्थ कर बताया। अश्व अपने प्रारोही के इंगिताकारानुरूप और पारोही अपने अश्व के मनोनुकूल अश्वकला-अश्वारोहण कला का प्रदर्शन करने लगे। अदृष्टपूर्व अद्भुत अश्वारोहण, अश्वसंचालन और अश्व द्वारा अपने प्रारोही के मन को लुभा देने वाली कमनीय कलाओं को देखकर राजा 'प्रश्वाश्ववारयोः सदृश योगमालोक्य........मूलराजप्रबन्ध, प्रबन्धचिन्तामणि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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