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________________ ७६६ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ सामन्तसिंह सुरापान के व्यसन में आकण्ठ डूबा हुआ था । अपने भागिनेय मूलराज द्वारा उस अल्प वय में ही की जाने वाली अपने राज्य की अभिवृद्धि के शौर्य पूर्ण साहसिक कार्यों से सामन्तसिंह फुला न समाता । सुरा के नशे में वह मूलराज को अपने राजसिंहासन पर बिठाता और कहता- "वत्स ! प्राज से इस राज्य का तू ही स्वामी है। मैंने यह सम्पूर्ण राज्य तुझे दे दिया है।" जब सुरा का नशा ढलने लगता तो सामन्तसिंह अपने भागिनेय मूल राज को हाथ पकड़ कर राजसिंहासन से उतार देता और अपने अनुचरों आदि के समक्ष उसका तिरस्कार करता हुआ कहता-"हठ जा यहां से, पाया है राजा बनने वाला। मेरी कृपा पर पला छोकरा राजसिंहासन पर बैठा है।" सामन्तसिंह का यह प्रायः प्रतिदिन का कार्य था। नशा होते ही वह मूलराज को सिंहासन पर बैठा देता। उसे हाथ जोड़ कर राजाधिराज के सम्बोधन से सम्बोधित करता हुआ पूर्ण सम्मान प्रकट करता। अपने परिजनों, राज्याधिकारियों और मन्त्रियों तक को कहता-"यह नरशार्दूल मेरा भागिनेय तुम्हारा, मेरा और हम सबका राजराजेश्वर है, इसकी प्रत्येक आज्ञा का तत्काल पालन करो।" ___ मद्य के नशे का प्रभाव कम होते ही सामन्तसिंह सबके समक्ष उसका तिरस्कार करता। सामन्तसिंह के इस प्रकार के दान और अपमान की बात दूर-दूर तक फैल गई । जन-जन के मुख से सदा सब ओर यही सुनने को मिलता "नशा मां राजदान, सादा मां धक्का।" इस प्रकार के अपमानजनक प्रसंगों से बचे रहने का स्वाभिमानी मूलराज अनेक बार प्रयत्न करता किन्तु मद्यपान से उन्मत्त बना सामन्तसिंह उसके पैरों पड़ जाता, स्नेह प्रदर्शित करता और शपथें तक ग्रहण करता कि अब एक बार राजसिंहासन पर उसे आसीन कर सदा उसे अपना राजा ही मानता रहेगा, भविष्य में कभी उसका तिरस्कार नहीं करेगा। परन्तु सब शपथें, सब प्रतिज्ञाएं क्षण भर में ही कपूर की तरह उड़ जातीं। वस्तुतः सामन्तसिंह के शरीर का अणु-अणु, रोम-रोम सदसद्-विवेकविनाशिनी सुरा के प्रगाढ़ रंग में पूर्णरूपेण रंग गया था। वह सुरा का ऐसा अनन्य दास बन गया था कि सुरापान करते ही वह अपनी सब शपथें, सभी प्रतिज्ञाए भूल जाता था। मद्यपान करते ही उस मद्यपी सामन्तसिंह के तन मन पर छाई हई सुरा स्वचालित यन्त्र के समान अपने उसी प्रतिरात्रि के क्रम को दुहराना प्रारम्भ कर देती । सुरा के चढ़ते हुए नशे की स्थिति में सर्वप्रथम तो सामन्तसिंह रूठे हुए अपने भागिनेय मूलराज को मनाता । अनुनयविनय करता, शपथों की झड़ी लगा देता, उसके चरणों पर अपना मस्तक तक रख देता और अपने परिचारक, स्वजन, परिजन, प्रधानामात्य, अमात्यों के समक्ष बड़े ठाट से मूल राज को सब राजचिह्नों से अलंकृत कर अपने राजसिंहासन पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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