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वीर निर्वाण से देवद्धि-काल तक ]
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देवद्धिगणि के स्वर्गारोहण काल अर्थात् वीर नि. सं. १००० तक भगवान् महावीर के निर्ग्रन्थ-श्रमण अपने पूर्वधर आचार्यों से अनुशासित मूल परम्परा में रहते हुए निर्ग्रन्थ प्रवचन में प्रतिपादित जैनधर्म के विशुद्ध आध्यात्मिक मूलरूप की उपासना और विशुद्ध श्रमरणाचार का पालन करते रहे । यद्यपि, जैसा कि पहले बताया जा चुका है वीर नि. सं. ८५० के आस-पास कतिपय निर्ग्रन्थ श्रमण निर्ग्रन्थ प्रवचन में प्रतिपादित श्रमणोचित पाचार, आस्थाओं और उग्र विहार को तिलांजलि दे अपनी इच्छानुसार चैत्यों-जिनमन्दिरों का निर्माण करवा कर उनमें स्थिरवास-नियतवास करने के साथ ही साथ अनेषणीय, अकल्पनीय, प्राधाकर्मी आहार भी लेने लग गये थे, तथापि मूल निर्ग्रन्थ परम्परा के महान् प्रतापी, आगमनिष्णात त्यागी, तपस्वी, उग्रविहारी तथा प्रकाण्ड विद्वान् पूर्वधर प्राचार्यों की विद्यमानता एवं उनके प्रबल प्रभाव के कारण वे निर्ग्रन्थ प्रवचन से प्रतिकूल प्रास्था और प्राचार वाले शिथिलाचारी चैत्यवासी अपने १५० वर्ष के अथक प्रयास के उपरान्त भी जैन समाज के मानस में कोई विशेष स्थान अथवा सम्मान तब तक प्राप्त करने में असफल ही रहे।
देवद्धि क्षमाश्रमण के अन्तिम समय तक जैन धर्म का शास्त्रों द्वारा प्रतिपादित विशुद्ध आध्यात्मिक मूल रूप अक्षुण्ण बना रहा और विशुद्ध श्रमणाचार में भी किसी प्रकार का उल्लेखनीय अन्तर नहीं पाया किन्तु देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के स्वर्गस्थ होने के पश्चात् भगवान महावीर के श्रमण-श्रमणी संघ की ही नहीं अपितु चतुर्विध संघ की, जैनधर्म के मूल विशुद्ध आध्यात्मिक स्वरूप की और विशुद्ध श्रमणाचार की भी स्थिति शनैः शनै: अति दयनीय होती गई। देवद्धि के स्वर्गारोहण काल तक निर्ग्रन्थ प्रवचन में प्रतिपादित जैनधर्म के मूल स्वरूप, मूल प्राचार, मूल आस्थाओं एवं मान्यताओं का उपासक भगवान महावीर का धर्मसंघ सुमंगठित, सुदृढ़, तेजस्वी, बहुजनमान्य तथा सबल था और चैत्यवासी संघ निर्बल, नगण्य एवं अत्यल्प जन-मान्य था । परन्तु अन्तिम पूर्वधर आर्य देवद्धि के स्वर्गस्थ होने के उत्तरवर्ती काल में चैत्यवासी संघ का शनैः शनैः जोर बढ़ने लगा। धीरे-धीरे एक समय ऐसा आया कि वह चैत्यवासी संघ सशक्त, सुदृढ़, देश-व्यापी एवं बहुजनमान्य बन गया और जैन धर्म के मूल स्वरूप, विशुद्ध मूल श्रमणाचार की मान्यताओं एवं प्रास्थाओं का उपासक प्रभू वीर का मूल धर्म संघ निर्बल, विघटित और अत्यल्प-जनमान्य होता चला गया। चैत्यवासियों ने और उनके पद चिह्नों का अनुसरण करते हए भट्टारकों, यापनीयों और श्रीपूज्यों ने जैन धर्म के शास्त्रोक्त मूल स्वरूप, आगमों में प्रतिपादित मूल श्रमरणाचार और यहां तक कि श्राद्धवर्ग के आचार-विचार और दैनिक धर्मकृत्यों तक में स्वेच्छानुसार निर्ग्रन्थ प्रवचन की भावनाओं के प्रतिकूल आमूलचूल परिवर्तन कर धर्म के मूल स्वरूप को ही विकृत कर दिया। उनके आडम्बरपूर्ण जनमनरंजनकारी आकर्षक अभिनव विधाओं, स्वेच्छानुसार प्रकल्पित आयोजनों का जनमानस पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि सभी ओर सभी वर्गों के लोग
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