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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ जाने की व्यवस्था की गई । सभी गणों एवं गच्छों के कुशाग्रबुद्धि मुयोग्य शिक्षार्थी साधु उस वाचनाचार्य से आगमों को वाचनाए ग्रहण करते।
- आर्य महागिरी के उत्तरवर्ती काल से आर्य देवद्धिगगि क्षमा-श्रमण तक गणाचार्यों के साथ-साथ यूग प्रधानाचार्य और वाचनाचार्य परम्परा अबाध गति से निरन्तर निरवच्छिन्न रूप से चलती रही। इसी कारण जैन धर्म का मूल स्वरूप और आगमानुसारी विशुद्ध मूल प्राचार भी आर्य देवद्धिगरण क्षमाश्रमण के स्वर्गारोहण काल तक सुचारु रूपेण यथावत् बना रहा । इस प्रकार की समुचित व्यवस्था के कारण गणों और गच्छों की अनेकता के उपरान्त भी भगवान महावीर के चतुर्विध संघ की एकता अक्षुण्ण बनी रही। अनेकता में एकता का यह एक आदर्श प्रयोग सिद्ध हुआ।
यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि वीर नि० सं० ६०६ में दिगम्बर संघ, लगभग उसी अवधि में यापनीय संघ और वीर नि० सं० ८५० के आस-पास की अवधि में चैत्यवासी परम्परा का प्रादुर्भाव हो चुका था। किन्तु देवद्धिगरिग क्षमाश्रमण के स्वर्गारोहरण काल तक ये सभी संघ अपने-अपने क्षेत्र में सह अस्तित्वपूर्वक कार्यरत रहे। उपर्युक्त १००० वर्ष की अवधि में इन सब संघों में परस्पर कोई उल्लेखनीय संघर्प जैसी स्थिति का उल्लेख जैन साहित्य में कहीं उपलब्ध नहीं होता ।
इस प्रकार वीर नि० सं० १ से १००० तक भगवान् महावीर का धर्म संघ जैन धर्म के मूल स्वरूप और मुल प्राचार का उपासक रहा, इसका प्रमुख कारण यही रहा कि उस अवधि में पूर्व-ज्ञान के वेत्ता महान् आचार्यों के तप-तेज-ज्ञान और अद्भुत प्रतिभा सम्पन्न वर्चस्व के कारण पागम से भिन्न प्राचार-विचार वाली परम्पराए अपनी जड़ नहीं जमा पाई।
यद्यपि आर्य सुधर्मा से लेकर प्रार्य देवद्धिगरिण क्षमाश्रमण के समय तक को पृथक्-पृथक् कालावधि में निर्ग्रन्थ संघ सौधर्मगच्छ, कोटिक गच्छ, वनवासी गच्छ वसतिवासी आदि नामों से भी अभिहित किया जाता रहा, तथापि इसका मूल, निर्ग्रन्थ रूप उस १००० वर्ष की अवधि में भी अक्षुण्ण बना रहा । अाज भी जैन श्रमण 'निर्ग्रन्थ' और जैनागम 'निर्ग्रन्थ प्रवचन' के नाम से विख्यात हैं । निर्ग्रन्थ का सीधा सा अर्थ है ग्रन्थि रहित । ग्रन्थि दो प्रकार की है - द्रव्य ग्रन्थि और भावग्रन्थि । द्रव्य ग्रन्थि अर्थात् धन-सम्पत्ति प्रादि सभी प्रकार के परिग्रह और भावग्रन्थि-क्रोध, मान, माया, लोभ, ममत्व प्रादि कषाय । जो इन दोनों प्रकार की ग्रन्थियों से रहित है, उसका नाम है . निर्ग्रन्थ अर्थात् जैन श्रमण। उन निर्ग्रन्थों के प्राचार का तथा प्राणीमात्र के कल्याणमार्ग का प्रतिपादन करने के लिये जिन सूत्रों-सिद्धान्तों व ग्रागमों की रचना की गई, वे निर्ग्रन्थ प्रवचन कहलाये ।
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