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________________ वीर निर्वाण से देवद्धि-काल तक आर्य देवद्धि क्षमाश्रमण से आगे का इतिहास प्रस्तुत करने से पूर्व इतिहासप्रमियों का ध्यान एक महत्वपूर्ण तथ्य की ओर आकर्षित करना आवश्यक है । वह तथ्य यह है कि प्रार्य सुधर्मा से प्रार्य देवद्धि क्षमाश्रमण के स्वर्गस्थ होने अर्थात् वीर नि० सं० १ से १००० तक जैन धर्म-मूल परंपरा में मूल प्रवाह में ही चलता रहा। उस एक हजार वर्ष की अवधि में भगवान् महावीर का चतुर्विध संघ प्रभु द्वारा प्ररूपित जैन धर्म के अध्यात्मपरक एवं अहिंसामूलक मूल स्वरूप का ही उपासक रहा । श्रमण --श्रमरणी वर्ग एवं श्रमणोपासक -श्रमणोपासिका वर्ग के लिये आगमों में जिस प्रकार के प्राचार का विधान किया गया है, उसी के अनुरूप प्राचरण एवं साधना करता हुप्रा चतुर्विध संघ एक दो साधारण अपवादों को छोड़ पूर्णत: एक सूत्र में अनुशासित रूप से चलता रहा । आर्य महागिरी के स्वर्गस्थ होने के अनन्तर गणों एवं गच्छों का पृथक् अस्तित्व प्रारम्भ होने लगा। परन्तु उस समय के दीर्घदर्शी प्राचार्यों एवं श्रमणों ने उन विभिन्न इकाइयों के अस्तित्व को मान्य करते हुए भगवान् महावीर के धर्म संघ को सुदीर्घकाल के लिये एकता के सूत्र में आबद्ध रखने के सदुद्देश्य से वाचनाचार्य, युगप्रधानाचार्य और गरणाचार्य जैसे सामन्जस्यकारी पदों का सृजन किया । यह ऐसी व्यवस्था थी कि जिसमें स्व--पर-कल्याण की आध्यात्मिक स्पर्द्धा के साथ-साथ सभी गरण एवं गच्छ सह-अस्तित्वपूर्वक अपने-अपने क्षेत्र में कार्य करते हुए अपना अस्तित्व स्वतन्त्र इकाइयों के रूप में बनाए रख कर भी जिन शासन को अभिवृद्धि के लिये अनिश निरन्तर प्रयत्नशील रहते हुए स्व तथा पर के कल्याण में निरत रहे। उन सभी गणों एवं गच्छों में से सर्वोच्च एवं विशिष्टतम प्रतिभा के धनी श्रमण को युगप्रधानाचार्य पद पर सर्वसम्मति से नियुक्त करने की व्यवस्था की गई। धर्म के अभ्युत्थान, प्रचार, प्रसार, संरक्षण, संवर्द्धन तथा धर्म के शास्त्रोक्त मूल स्वरूप एवं विशुद्ध श्रमणाचार के संरक्षगा आदि से सम्बन्धित नीतियों के विषय में युगप्रधानाचार्य के निर्देशों अथवा आदेशों को सभी गणों एवं गच्छों के प्राचार्यों द्वारा शिरोधार्य किया जाकर अपने-अपने श्रमण-श्रमणी समूह से उन आदेशों का पालन करवाया जाना अनिवार्य रखा गया । इसी प्रकार आगमों के अध्ययन के लिये सभी गणों तथा गच्छों में से छांट कर मुयोग्यतम प्रागमनिष्णात श्रमरणश्रेष्ठ को वाचनाचार्य पद पर अधिष्ठित किये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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