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________________ ७८४ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३ धनपाल द्वारा विरचित तिलकमंजरी के संशोधन करने हेतु घारापति ने शान्तिसूरि से प्रार्थना की। इस पर शान्ति सूरि ने "तिलकमंजरी कथा" का शोधन एवं परिमार्जन किया । शान्तिसूरि द्वारा शोषित तिलकमंजरी को देख कर राजा भोज प्रतीव प्रसन्न हुआ और उसने चैत्यों के निर्मारण के लिये १२ लाख मुद्राएं प्रदान कीं । मालव प्रदेश में जिनशासन की कीर्तिपताका फहराने के अनन्तर वादि-वैताल विरुदधारी शान्तिसूरि गुजरात प्रान्त में लौटे और विहार क्रम से अनेक स्थानों में धर्मोपदेश देते हुए पाटण नगर में पधारे। आपके पाटण में श्रागमन से पूर्व ही वहां के प्रमुख श्रेष्ठि जिनदेव के पुत्र पद्म को एक विषधर ने डस लिया था । सब प्रकार के उपचार किये गये, मांत्रिकों भी अपनी पूरी शक्ति लगा दी किन्तु पद्म पर विष का प्रभाव बढ़ता ही गया । अन्ततोगत्वा सब उपायों के निष्फल हो जाने पर प्रात्मीयों ने श्मशान में एक गड्ढा खोदकर पद्म के शरीर को उस खड्डे में रख उस खड्डे को मिट्टी से पाट दिया और वे अपने घर लौट आये । पाटण में पहुंचने पर शान्ति सूरि ने अपने शिष्यों से श्रेष्ठिपुत्र पद्म को सांप के डसने और उसे भूमि में गाड देने का वृत्तान्त सुना तो वे जिनदेव के घर गये और उससे कहा कि वह एक बार सर्प से डसे हुए पद्म को उन्हें दिखाये । अपने कौटुम्बिक जनों सहित जिनदेव, प्राचार्य श्री शान्तिसूरि के साथ श्मशान भूमि में गये। वहां गड्ढे से निकालकर उन्होंने पद्म का शरीर शान्तिसूरि को दिखाया । शान्तिसूरि ने अमृततत्व का स्मरण कर पद्म के शरीर का स्पर्श किया । शान्तिसूरि के कर स्पर्श करने मात्र से सर्पविष विनष्ट हो गया और तत्काल पद्म ने उठकर शान्तिसूरि को वन्दन करते हुए पूछा :- "भगवन् ! आप, मैं और मेरे भ्रात्मीयजन यहां श्मशान में कैसे प्राये हैं ?" जिनदेव के हर्ष का पारावार नहीं रहा। हर्षावरुद्ध कण्ठ से उसने अपने पुत्र को संक्षेप में पूरा वृत्तान्त सुनाया । इस अद्भुत् चमत्कार से सभी प्राश्चर्याभिभूत मौर हर्ष विभोर हो उठे। यह परमाश्चर्यकारी सुखद सम्वाद विद्य त्वेग से तत्क्षण ही पाटरण के घर-घर में प्रसृत हो गया । इस प्रदृष्ट पूर्व चमत्कार को देखने के लिये पाटण के आबाल वृद्ध नर-नारियों के वृन्द घर-घर, गली-गली से तत्काल श्मशान की घोर उमड़ पड़े । श्मशान के चारों प्रोर देखते ही देखते प्रति विशाल जन समुद्र लहराने लगा । शान्तिसूरि के जयघोषों से गगन मण्डल गुंजरित हो उठा । प्राचार्य श्री शान्तिसूरि का अनुसरण करते हुए श्रेष्ठि जिनदेव, श्रेष्ठि पुत्र पद्म प्रौर पाटण के नागरिकों का विशाल जनसमूह महामहोत्सव के रूप में नगर में लोटा । स्थान-स्थान पर शान्तिसूरिजी का अभिनन्दन किया गया। इस घटना से समस्त गुजरात प्रान्त ही नहीं अपितु दिग्दिगन्त में धर्म की बड़ी प्रभावना हुई । कालान्तर में नाडोलनगर से मुनिचन्द्र नामक प्राचार्य अराहिलपुर पाटण में प्राये । उनकी असाधारण कुशाग्र बुद्धि से प्रसन्न हो शान्तिसूरि ने मुनिचन्द्र सूरि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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