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________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ७८३ आचार्य श्री विजयसिंह ने अपने सुयोग्य शिष्य शान्ति मुनि को सभी विद्याओं में पारंगत और संघभार को वहन करने में पूर्णतः सक्षम समझकर उन्हें शुभ मुहूर्त में आचार्य पद प्रदान किया। अपने सुयोग्य उत्तराधिकारी को अपने गच्छ का भार सम्हलाकर विजयसिंह सूरि ने संलेखना और अनशन पूर्वक आयुष्य पूर्ण कर स्वर्गारोहण किया। शान्ति सूरि ने आचार्य पद पर आसीन होने के अनन्तर अनेक प्रतिवादियों को शास्त्रार्थ में पराजित कर अपने गच्छ की प्रतिष्ठा में उत्तरोत्तर उल्लेखनीय अभिवृद्धि की। उनकी कीर्ति दिग्दिगन्त में व्याप्त होने लगी। अणहिल्लपुर पाटण में महाराजा भीम की राजसभा में उन्हें कवीन्द्र का पद प्रदान किया गया। उस समय के उच्चकोटि. के विद्वानों में उनकी गणना की जाने लगी। शान्ति सरि के प्राचार्यकाल में प्रवन्ति प्रदेश में धनपाल नामक एक विख्यात कवि रहता था एवं उसी प्रदेश में महेन्द्राचार्य नाम के एक अन्य विद्वान् जैनाचार्य धर्म प्रचार करते हुए विचरण कर रहे थे। उन महेन्द्राचार्य के आदेशानुसार उनके शिष्यों ने धनपाल को एक अवसर पर प्रत्यक्ष दिखाया कि गोरस में, दो दिन के पश्चात् जीव उत्पन्न हो जाते हैं। साधुओं द्वारा यह प्रत्यक्ष दिखाये जाने पर कवि धनपाल महेन्द्राचार्य को सेवा में उपस्थित हुआ और उनके उपदेश से प्रबुद्ध हो वह दृढ़ सम्यक्त वी बना । सम्यक्त व ग्रहण करने के पश्चात् धनपाल ने "तिलकमञ्जरी" नामक ग्रन्थ की रचना की। तिलक मंजरी की रचना सम्पन्न हो जाने के पश्चात् धनपाल ने महेन्द्राचार्य से पूछा-"भगवन् अब इस तिलकमञ्जरी ग्रन्थ का शोधन कौन करेगा?" प्राचार्य महेन्द्र ने कहा :--"शान्तिसूरि तुम्हारी इस कृति का संशोधन करेंगे।" धनपाल उज्जयिनी से प्रस्थित हो अणहिल्लपुर पाटन आया। वहां शान्तिसूरि और उनके शिष्यों के अद्भुत पाण्डित्य को देख कर बड़ा चमत्कृत हुआ। उसने शान्तिसरि से प्रगाढ़ प्राग्रहपर्ण अभ्यर्थना की कि वे उज्जयिनी पधारें। धनपाल को अनुरोधपूर्ण प्रार्थना स्वीकार कर शान्तिसूरि मालव की ओर प्रस्थित हुए। मालव प्रदेश में उन्होंने उनके साथ शास्त्रार्थ करने के लिये समय-समय पर आये हुए चौरासी प्रतिवादियों को वाद में पराजित किया । धाराधीश ने शान्ति सूरि की अप्रतिम वाद प्रतिभा, वाग्मिता और प्रकाण्ड पाण्डित्य से प्रभावित हो अपनी राज सभा में “वादिवताल' की उपाधि से उन्हें अलंकृत किया और गुजरात प्रदेश के अनेक स्थानों में चैत्यों के निर्माण हेतु विपुल धनराशि की व्यवस्था की। कवि ' कथा च धन पालस्य, प्रशोध्यत विष्तुषम् । वादि वैताल विरुदं सूरीणां प्रददे नृपः ॥५६।। -प्रभावक चरित्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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