________________
७८२ ]
[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
हुमा । उन्नतायु ग्राम गुजरात प्रान्त की तत्कालीन राजधानी प्रणहिल्लपुर पत्तन के पश्चिम में बसा हुआ था। जिस समय शान्तिसूरि का जन्म हुआ उस समय गुजरात के महाप्रतापी राजा भीम अणहिल्लपुरपत्तन में गुजरात के राजसिंहासन पर आसीन थे। शान्तिसूरि के जन्मकाल में चन्द्रगच्छ की शाखा थारपद्र गच्छ का सर्वत्र वनस्व था। उस समय थारपद्र गच्छ के आचार्य पद पर श्री विजयसिंहसरि विराजमान थे। श्री विजयसिंह सरि की कोति दिग्दिगन्त में व्याप्त हो रही थी।
श्रेष्ठिवर धनदेव ने अपने पुत्र का नाम भीम रखा। सभी प्रकार के शुभ लक्षणों से सम्पन्न बालक भीम क्रमशः ज्यों-ज्यों वय में बढ़ने लगा त्यों-त्यों उसके शुभ लक्षणों एवं गुणों की सौरभ दूर-दूर तक फैलने लगी।
एक समय विजयसिंह सूरि ग्रामानुग्राम विचरण कर भव्यों को धर्म का उपदेश देते हुए बालक भीम के ग्राम उन्नतायु में आये। उन्होंने वहां अनेक शुभलक्षणों से सम्पन्न प्राजानुभुज बालक भीम को देखा। बालक भीम के विशाल वक्षस्थल, प्रशस्त भाल, उन्नत एवं पुष्ट कन्धों तथा अन्यान्य असाधारण शुभ लक्षणों को देख कर विजय सिंहाचार्य ने अनुभव किया कि यह बालक समय पाने पर धर्मसंघ के संचालन के गुरुत्तर भार को वहन करने में सक्षम और जिनशासन का उन्नायक होगा।
चैत्य में प्रादिनाथ भगवान ऋषभदेव को प्रणाम कर विजय सिंहाचार्य श्रेष्ठि धनदेव के घर गये और उससे उन्होंने कहा- "श्रेष्ठिन् ! जिनशासन की अभ्युन्नति के लक्ष्य से हम तुमसे तुम्हारे इस होनहार पुत्र भीम की याचना करते हैं।"
धनदेव श्रेष्ठि ने हर्षविभोर हो अतीव विनम्र एवं मृदु स्वर में उत्तर दिया--- "प्राचार्य देव ! इससे बढ़कर मेरा और क्या सौभाग्य हो सकता है कि मेरा पुत्र आपके प्रभीष्ट कार्य का प्रसाधक बन सकेगा। मैं इसे अपना अहोभाग्य समझकर भीम को आपके चरणों में समर्पित करता हूं। मेरे पुत्र भीम को स्वीकार कर आप अपने इस दास को कृतकृत्य कीजिये।" यह कहते हए धनदेव ने अपने पुत्र भीम को विजयसिंहाचार्य के चरणों में समर्पित कर दिया।
विजय सिंहाचार्य ने प्रतिभाशाली बालक भीम को समुचित शिक्षण देना प्रारम्भ किया और उसे सभी भांति सुयोग्य एवं कुशाग्रबद्धि समझकर कालान्तर में श्रमणधर्म में दीक्षित किया । दीक्षित करते समय आचार्य श्री विजयसिंह ने बालक भीम का नाम शान्ति मुनि रखा । सुतीक्ष्ण बुद्धि शान्तिमुनि ने बड़ी निष्ठा के साथ शास्त्रों का अध्ययन प्रारम्भ किया और क्रमश: उन्होंने सभी कलाओं, विद्याओं एवं आगमों का गहन ज्ञान प्राप्त कर उनमें निष्णातता प्राप्त की।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org