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________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ७७७ इस प्रकार राजा भोज की राजसभा को शास्त्रार्थ में पराजित एवं निरुत्तर कर सूराचार्य तत्काल अपने प्रावास की ओर प्रस्थित हुए। रहस्य के प्रकट हो जाने की ग्लानि और वाद में पराजय के शोक से पीड़ित राजा भोज ने तत्काल राजसभा को विसर्जित कर दिया और स्वयं मन्त्रणाकक्ष में चला गया। प्राचार्य बट सरस्वती ने अपने अतिथि सराचार्य से कहा- "विद्वद शिरोमणे! आपकी वाग्मिता एवं विद्वत्ता से जिन शासन की प्रभावना हुई है, इसका सम्मान बढ़ा है, इस बात की तो मुझे बड़ी सुखानुभूति हो रही है किन्तु प्रापका जीवन अब संकट में है। आपकी उस आसन्न मृत्यु की आशंका से मुझे बड़ा दुःख हो रहा है। क्योंकि राजा भोज वस्तुतः अपनी सभा को जीत लेने वाले विद्वान् को अपने स्वभाव के अनुसार येन-केन-प्रकारेण मरवा ही देता है। क्या किया जाय ? यहां जय अथवा पराजय, दोनों ही स्थितियों में हानि ही हानि है, लाभ तो किचित्मात्र भी नहीं।" सूराचार्य ने बूट सरस्वती को आश्वस्त करते हुए कहा- "आप किसी बात की चिन्ता मत कीजिये। मैं इस सहसा उत्पन्न प्राणसंकट से अवश्यमेव प्रात्मरक्षा कर लूगा।" ___ उसी समय महाकवि धनपाल द्वारा भेजा गया उनका एक विश्वस्त पुरुष मठ में आया और उसने सूराचार्य को अपने स्वामी का सन्देश सुनाते हुए कहा -- "पूज्यवर ! आप पूर्णत: गुप्तरूपेण शीघ्र ही मेरे घर पर चले आइये । इस राजा का कोई विश्वास नहीं है। इसकी प्रसन्नता भी अन्ततोगत्वा बड़ी भयानक होती है। जिसका अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता। आप जैसे विद्वान् वस्तुतः हमारी आर्य घरा के सभी प्रदेशों के शृंगार हैं। आप जैसों के दर्शन मेरे जैसे अकिंचनों को पूर्वाजित प्रबल पुण्यों के प्रताप से ही होते हैं। मेरे यहां चले पाने के पश्चात आपको कुछ भी नहीं करना होगा, मैं स्वयं ही सम्पूर्ण समुचित व्यवस्था कर दूंगा। और आपको सकुशल एवं सुखपूर्वक गुर्जर भूमि में पहुंचा दूंगा।" अपने स्वामी का यह सन्देश सुना कर धनपाल का वह विश्वासपात्र तुरन्त अपने स्वामी के पास लौट गया। प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व ही मालव सेना के अश्वारोहियों ने सूराचार्य के निवासस्थल बने उस सम्पूर्ण मठ को चारों ओर से घेर लिया। उनका नायक बूट सरस्वती के पास आकर कहने लगा - "साधु लोगों के भाग्य का उदय हुआ है। आप लोगों को मालवेश्वर महाराज भोज प्रसन्न होकर जयपत्र प्रदान करेंगे। अतः प्रतिवादी को पराजित कर देने वाले हमारे अतिथि सूराचार्य को राजसभा में भेजिये।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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