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[ जैन धर्म का मोलिक इतिहास-भाग ३
राजा भोज ने कहा : -- "महर्षिन् ! केवल वय और वपु को देखकर ही आप यह मत समझ लीजिये कि यह शिशु है। आप विश्वास रखिये कि इस शिशु के रूप में साक्षात् वाग्वादिनी देवी सरस्वती ही इस राज्यसभा में आपके समक्ष शास्त्रार्थ के लिए समुपस्थित है । मेरा यह दृढ़ मत है कि इस सरस्वती स्वरूप प्रतिवादी को आपके द्वारा जीत लिये जाने पर मैं मान लगा कि आपने मेरी राजसभा को जीत लिया है।"
सूराचार्य ने गम्भीर स्वर में कहा :-"अस्तु, यदि आपका यही निर्णय है तो वह मुझे स्वीकार है । किन्तु शास्त्रार्थ के नियमानुसार वादी प्रतिवादियों में वय की दृष्टि से लघु हो, उसी को अपना पूर्वपक्ष सर्वप्रथम रखने का अधिकार होता है । इस परम्परागत नियम के अनुसार यह बालक प्रतिवादी वाद के लिए अपना पूर्वपक्ष पहले प्रस्तुत करे।"
सूराचार्य की बात सुनते ही उस बाल वादी ने विराम, अल्पविराम, विभक्ति, पद, वाक्य प्रादि की ओर कोई ध्यान न देते हुए अपने रटे-रटाये पाठ को धारा-प्रवाह रूप से बोलते हुए अपना पूर्वपक्ष रखा।
प्रतिवादी के मुख से इस प्रकार के उच्चारण को सुनकर सूराचार्य तत्काल समझ गये कि रटे हुए पाठों को बिना उसका अर्थ समझे ही यह बाल पंडित बोल रहा है । इसे यह भी बोध नहीं है कि यह पाठ शुद्ध है अथवा अशुद्ध ।
जब वह बाल प्रतिवादी द्रतगति से रटा हा पाठ बोलता ही चला गया तो उचित समझते हए बीच में टोकते हुए सराचार्य ने उसे कहा-"महानुभाव ! मापने जो अन्तिम वाक्य का उच्चारण किया है, वह वस्तुत: अशुद्ध है । कृपया उसे पुनः बोलिये।"
बालक प्रतिवादी ने बालस्वभाववशात अपनी स्मरण शक्ति पर अटल आस्था प्रकट करते हुए सरलमन से सच्चाई प्रकट करते हुए तत्काल उत्तर दिया"मैं दृढ़ विश्वास के साथ कहता हूं कि जैसा पट्टिका पर लिख कर मुझे दिया गया है, वही में बोल रहा हूं।"
प्रतिवादी का वास्तविक स्वरूप प्रकट हो जाने पर कि वाद के लिये जैसा उसे रटाया गया है, वही वह अक्षरश: बोल रहा है, सभी सभ्य स्तब्ध रह गये।
सूराचार्य ने रहस्यपूर्ण प्रश्न किया :-"मालवेश ! आपके मालव प्रदेश में क्या इसी प्रकार का शास्त्रार्थ होता है ? मैंने मालव प्रदेश को भली-भांति देख लिया है और यहां के मण्डकों (लघु गोलाकार मोटी रोटी) का रसास्वादन भी कर लिया है।"
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