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________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ७७५ राजा ने अपने मन्त्रणाकक्ष में सभी विद्वानों को एकत्रित कर उनसे कहा-- "यह गुर्जरदेशवासी जैन प्राचार्य यहां आया है । क्या इसके साथ शास्त्रार्थ करने में आप में से कोई विद्वान् सक्षम है ? वहां उपस्थित पांच सौ पंडितों में से प्रत्येक की ग्रीवा झुक गई। राजा को बड़ा खेद हुआ। राजा ने कहा :-- "क्या मेरे सब पंडित गेहेनर्दी ही हैं जो राज्य द्वारा दी गई वृत्ति से अपना और अपने परिवार का केवल भरण-पोषण करते हैं और व्यर्थ ही अपने आपको विद्वान् बताते हैं ?'' विद्वद् समाज के लिये इस उद्विग्नकारी स्थिति से दुखित होकर एक विद्वान् ने राजा से कहा : "स्वामिन् ! आप इतने निराश न हों। यह धरती रत्नगर्भा है । ये गुर्जरवासी जैन साधु वस्तुतः दुर्जेय होते हैं। इन्हें सीधी राह नहीं जीता जा सकता। इन्हें जीतने के लिये तो कोई न कोई गूढ़ उपाय करना होगा। इसके लिए १६ वर्ष तक की उम्र के किसी कुशाग्र बुद्धिवाले छात्र को बुलवाया जाय और उसको किसी प्रकांड पंडित के माध्यम से प्रमाण शास्त्रों का शिक्षण दिलाया जाय।" यह सुनकर राजा भोज को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने कहा- “ऐसा ही हो । पर इस कार्य को तुम्हीं निष्पन्न करो।" एक सौम्य मेघावी, वाक्पटु, तीव्र बुद्धि, लघु वय के बालक को ढूंढकर लाया गया और उसे तर्क शास्त्र का अध्ययन करवाया गया । उसने स्वल्प समय में ही तर्क शास्त्र में बड़ी निपुणता प्राप्त करली । राजा ने शास्त्रार्थ के लिये शुभ मुहर्त निकलवाया और वाद करने में शूर सूराचार्य को उस नूतन बाल पंडित से शास्त्रार्थ के लिए निमन्त्रित किया। सूराचार्य के वाद हेतु राज्य सभा में उपस्थित होने पर राजा भोज ने सूराचार्य को सम्बोधित करते हुए कहा :-"विद्वन् ! अापके समक्ष वाद के लिए समुद्यत यह बाल पंडित प्रापका प्रतिवादी है।" उस अल्पवयस्क छात्र पंडित की ओर देखते हुए सूराचार्य ने कहा :"राजन् अपरिपक्वावस्था के कारण इस बाल समझे जाने वाले पंडित की वाणी भी अभी परिपक्व नहीं हुई है । शास्त्रार्थ के नियमानुसार वाद के लिए प्रतिस्पधियों में वय. विद्या आदि की समानता होना अत्यावश्यक है। युवा वादियों के लिये सभी दृष्टियों से अपरिपक्व बाल प्रतिवादी के साथ शास्त्रार्थ करना कदापि उचित नहीं, इस बात को आप ध्यान में लीजिये ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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