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1 जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३
उसने दूसरे दिन बूट सरस्वती के साथ सूराचार्य को राज सभा में निमन्त्रित किया। वे दोनों राजा भोज की सभा में उपस्थित हुए । राजा ने राजसभा के पार्श्वनाथ प्रांगण में एक शिला रखवा दी और गुर्जर भूमि के निवासी सूराचार्य को अपना अद्भुत पौरुष दिखलाने की प्राकांक्षा से उस शिला में एक छिद्र करवाकर उसे शिला के समान ही वर्ण वाले पदार्थों से बन्द करवा दिया। राजा ने सूराचार्य को ज्योंही राजसभा में आते हुए देखा त्योंही धनुष पर शरसन्धान कर प्रत्यन्चा को कान तक खींचते हुए उस शिला पर बाण छोड़ा । छिद्र को पार करता हुआ बारण दूर चला गया। और सबको स्पष्टतः दृष्टिगोचर होने लगा कि राजा ने शर से शिला को विद्ध कर दिया है।
सूराचार्य की तीक्ष्ण दृष्टि से वह छल छिपा नहीं रह सका और उन्होंने तत्काल गूढार्थ भरे निम्नलिखित श्लोक का घनरव गम्भीर सुमधुर स्वर में उच्चारण किया :
विद्धा विद्धा शिलेयं भवतु परमतः कार्मुकक्रीडितेन । श्रीमन्पाषाणभेदव्यसन रसिकता मंच मुंच प्रसीद | वे कौतूहलं चेत् कुलशिखरिकुलं बारणलक्षीकरोषि । ध्वस्ताधारा धरित्री नृपतिलक ! तदा याति पातालमूलम् ।।"
अर्थात् - हे श्रीमन् ! श्रापने इस शिला का वेध कर दिया है । किन्तु अब आगे इस भांति की शरसन्धान - क्रीडा से दूर ही रह कर पत्थर को फोड़ डालने वाले व्यसन में कृपा कर अभिरुचि छोड़ देना । अगर वेध में ही आपको कौतूहल की अनुभूति होती है तो परमार कुल के पवित्र अर्बुदगिरि को अपने बाण का लक्ष्य नाना जिससे कि हे नृप शिरोमणि ! धारा नगरी सहित सम्पूर्ण धरती पाताल के गहनतम तल में चली जाय ।
सूराचार्य के इस प्रकार के अद्भुत वर्णन सामर्थ्य से भोजराज बड़ा सन्तुष्ट हुआ। वहीं सभा में उपस्थित राजा भोज की राजसभा के रत्न महा जैन कवि धनपाल को भी यह विदित हो गया कि वस्तुतः सूराचार्य अप्रतिहत प्रज्ञा के धनी हैं । इनके सम्मुख कल्पना चातुरी, काव्य कौशल, विद्वत्ता आदि गुणों में कोई विद्वान् ठहर नहीं सकता ।
कवि धनपाल ने तत्काल ही भोज भूपाल के मुख पर उभरे क्षणिक श्राकारों से यह भांप लिया कि गूढोक्ति में निष्णात इस जैनाचार्य को किस प्रकार से जीता
जाय ।
राजा ने सूराचार्य का बड़ा सम्मान किया। सूराचार्य अपने निवास पर लौट आये ।
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