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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
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तरह विभिन्न उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु लोग विभिन्न दर्शनों के पास जावेंगे। चिरकाल से रूढ हुई और चित्त में घर की हुई मान्यताओं में सभी लोग आबद्ध हैं। ऐसी स्थिति में हे राजन ! आप ही सोचिये कि ये सभी दर्शन एक कैसे हो सकते हैं ?"
राजा को यह तर्क बड़ा युक्तिसंगत लगा। उसने अपने हठाग्रह अथवा कदाग्रह का त्याग कर सभी दर्शनों के प्रमुखों को ससम्मान भोजन करवाकर अथेच्छ अपने अपने स्थान पर जाने की अनुमति प्रदान कर दी)
सभी दर्शनों के अनुयायियों ने सूराचार्य के प्रति अपनी प्रान्तरिक कृतज्ञता ज्ञापित की और इस प्रकार सूराचार्य स्वल्प समय के प्रावास में ही सम्पूर्ण धारानगरी में विख्यात हो गये ।
सूराचार्य ने बूटसरस्वती प्राचार्य के साथ वहां के मठ के एक उपाध्याय से विद्यार्थियों के शिक्षण के सम्बन्ध में बात करते हए पूछा--"आपके यहां कौन-कौन मे ग्रन्थों का अध्ययन करवाया जाता है।"
उपाध्याय ने उत्तर दिया :--"श्री भोजराज द्वारा निर्मित व्याकरण और . छन्द शास्त्र का प्रमुख रूप से अध्ययन कराया जाता है।"
उसमें नमस्कार के प्रथम श्लोक को सुनाइये--सूराचार्य द्वारा यह बात कहने पर उपाध्याय तथा छात्रों ने निम्न श्लोक का समवेत स्वरों में उच्चारण किया।
चतुर्मुख मुखाम्भोजवन हंसवधूर्मम । मानसे रमतां नित्यं शुद्धवर्णा सरस्वती ।।"
सूराचार्य ने काव्य विनोद की मुद्रा में उत्प्रास गभित भाषा में कहा :-- "इस प्रकार के विद्वान इसी देश में होते हैं। अन्यत्र नहीं। हम यह सुनते आ रहे हैं कि माता सरस्वती ब्रह्मचारिणी है, कुमारी है, परन्तु आज आप लोगों के मुख से हम लोगों को यह सुनने को मिला है कि वह वधू है। इस स्तुतिपरक श्लोक में वधू शब्द के साथ ही 'मम मानसे रमतां' इन शब्दों का प्रयोग क्यों किया गया है ?"
उपाध्याय इस कथन का उत्तर देने में पूर्णत: प्रक्षम था इसलिये इधर-उधर की बातों में उसने येन केन प्रकारेण समय व्यतीत किया।
सन्ध्या समय उस उपाध्याय ने राजा भोज के समक्ष उपस्थित हो मठ में हुए सूराचार्य के साथ के वार्तालाप से अवगत करवाया। राजा भोज को बड़ा विस्मय
हुआ।
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