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________________ ७७२ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३ राजा की अनुमति प्राप्त हो जाने पर सूराचार्य मन्त्रियों के साथ राज भवन में पहुंचे । जाते ही उन्होंने राजा से कहा :- "राजन् ! अतिथियों का प्रातिथ्य सत्कार बड़े अद्भुत ढंग से आपने किया है । पर यह सत्कार आपने उचित ही किया है क्योंकि तपस्वियों के लिये तप ही सर्वस्व है । मैं कोई अपने कार्य से आपके पास नहीं आया हूं । आपने सब दर्शन वालों को यहां एक तरह से बन्दी बना रखा है । यह मेरे हृदय में खटक रहा है । अतः मैं अब अपनी जन्मभूमि को लौट रहा हूं । मैं आपसे केवल यही पूछना चाहता हूं कि गुर्जर भूमि में लौटने पर वहां के लोग धारा नगरी के सम्बन्ध में अनेक प्रकार का विवरण पूछेंगे तो मैं उन्हें क्या बताऊं ?" राजा भोज ने उत्तर दिया :- "आप अतिथियों के सम्मुख में कुछ भी नहीं कहता । मैं तो इन दर्शन वालों से ही पूछता हूं कि तुम्हारी परस्पर भिन्नता का क्या कारण है ? धारा के स्वरूप का जहां तक सम्बन्ध है, वह स्वरूप में आपके सम्मुख प्रस्तुत करता हूं । उसे आप ध्यान से सुनिये । चौरासी जहां पर गगनचुम्बी विशाल प्रासाद पंक्तियां हैं, प्रत्येक प्रासाद पंक्ति में चौरासी- चौरासी चतुष्पथ ( चौराहे ) हैं । इसी प्रकार नगरी में चौरासी हट्टों ( बाजारों) का निर्माण इस धारानगरी में किया गया है। यह है धारानगरी का स्वरूप । " इस पर सूराचार्य ने पूछा :- "राजन् ! इन चौरासी बाजारों का एक ही बाजार बना दीजिये | इन बहुत से बाजारों का क्या प्रयोजन ? चौरासी बाजारों के स्थान पर एक ही बाजार बना दिये जाने से लोगों को इधर-उधर भिन्न-भिन्न बाजारों में भटकना भी नहीं पड़ेगा और एक ही बाजार में उन्हें यथेप्सित वस्तुएं मिल जायेंगी ।" राजा ने कहा :- " भिन्न-भिन्न वस्तुओं के ग्राहकों के एक ही स्थान पर एकत्रित होने से बड़ी बाधा और अव्यवस्था हो जायगी। इसी विचार से मैंने इन चौरासी बाजारों का पृथक्-पृथक् निर्माण करवाया है ।' " यह सुनते ही सूराचार्य ने विनोदपूर्ण मुद्रा में कहा :- "महाराज ! आप इतने बड़े विद्वान् हैं तो आप इस बात पर विचार क्यों नहीं करते कि जब अपने बनाये हुए इन हाटों को इन बाजारों को तुड़वा कर एक कर देने में ग्राप अक्षम हैं तो अनादिकाल से चले आ रहे इन षड्दर्शनों को नष्ट कर एक करने के लिये आप क्यों उद्यत हो रहे हैं ? जिस प्रकार पृथक्-पृथक् बाजारों में अपनी अभीप्सित वस्तु को लेने के लिये लोग जाते हैं, ठीक उसी प्रकार येन-केन-प्रकारेण संसार के सुखों का उपभोग करने के इच्छुक चार्वाक् दर्शन के पास, व्यावहारिक प्रतिष्ठा सुख स्वर्गादि के इच्छुक वैदिक दर्शन के पास और मुक्ति के इच्छुक निरंजन निराकार की उपासना करने वाले तथा जीवदया पर सर्वाधिक बल देने वाले जैन दर्शन के पास और इसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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