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________________ वीर सम्वत् १०६० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ७७१ आप छहों दर्शनों के लोग एक साथ बैठकर विचार विनिमय करो और सब दर्शनों को मिलाकर एक सर्व सम्मत दर्शन का स्वरूप हमारे सामने प्रस्तुत करो, जिससे कि हम लोगों को किन्चित्मात्र भी सन्देह न हो कि यह सच है अथवा वह । वह झूठ है अथवा यह।" मन्त्रियों ने राजा से निवेदन किया कि "क्या आज तक प्राचीन राजाओं में से किसी एक ने भी इस प्रकार का प्रयास किया है और क्या विधाता भी सब दर्शनों का समन्वय करने में कभी समर्थ रहा है ?" राजा भोज ने प्रश्न के उत्तर में प्रति प्रश्न किया :--"क्या परमार वंश के अन्दर कभी कोई ऐसा राजा हा है, जिसने अपनी शक्ति से गौड़ प्रदेश सहित दक्षिणापथ पर अपना शासन स्थापित किया हो ?" उन लोगों को निरुत्तर देखकर राजा ने अपने भृत्यों से नगर के सहस्रों प्रमुख स्त्री-पुरुषों को एकत्रित कर एक विशाल भवन में बन्द कर दिया और यह कहा कि जब तक तुम सब लोगों में सर्वसम्मत एक दर्शन पर मतैक्य नहीं हो जाएगा, तब तक तुम लोगों को खाने के लिए कुछ भी नहीं दिया जायगा। सब लोग भूखों मरने लगे और इस बात पर सबका मतैक्य हो गया कि अपने प्राणों की रक्षा किस प्रकार की जाय । जैन दर्शन के प्राचार्य होने के कारण सूराचार्य भी वहां उपस्थित थे। सभी दर्शनों के प्रमुखों ने उनसे निवेदन किया :--"राजा सब दर्शनों को एक रूप में देखना चाहता है। पर ऐसा न कभी भूतकाल में हुआ है और न कभी भविष्य में ही होगा । आप गुर्जर देश के विद्वान् हैं । अतः आप अपनी वचन चातुरी से राजा को इस प्रकार का कदाग्रह छोड़ने के लिये राजी कीजिये। इस प्रकार हजारों लोगों को प्राणदान देकर आप असीम पुण्य का उपार्जन कर सकेंगे।" सूराचार्य ने कहा :-"हम लोग तो अतिथि की तरह सुदूर प्रदेश से यहां आये हैं। ऐसी स्थिति में राजा मेरी बात माने अथवा न माने, कुछ भी नहीं कहा जा सकता । तथापि सभी दर्शन हमारे लिये आदरणीय रहे हैं। अतः इस संकट से मुक्ति के लिये यथाशक्य में प्रयत्न करूंगा।" एक मन्त्री के माध्यम से सूरर्षि ने राजा भोज से कहलवाया :-"राजन् ! हमारे यहां आने के थोड़ी देर पश्चात् ही आप चले गये थे। इस कारण अभी तक हम दोनों की कोई खास बात नहीं हो पाई है। किन्तु सभी दर्शनों के सहस्रों लोगों की अनुकम्पा के कारण मैं आपसे कुछ निवेदन करना चाहता हूं। यदि आप सुनना चाहें तो अवसर दें।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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