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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३
बूट सरस्वती ने अपनी चिन्ता को अन्तर्मन में छुपाते हुये कहा :"प्रवश्य। ऐसा ही करूंगा ।"
नायक मठ के चारों ओर घेरा डाले डटा रहा । मठ का आवागमन पूर्णरूपेरण अवरुद्ध कर दिया गया था। न तो कोई मठ के अन्दर से बाहर जा सकता था और न बाहर से कोई भी व्यक्ति मठ के अन्दर प्रवेश कर सकता था ।
जब मध्याह्न में सूर्य अपनी प्रचण्ड किरणों से घरातल को प्रतप्त कर रहा था, उस समय सूराचार्य ने एक वयोवृद्ध साधु की मैली, फटी चादर ओढ़ कर वेश परिवर्तन किया । पट्ट पर एक स्थूलकाय जराजीर्ण साधु को बैठा कर सूराचार्य एक फटी पुरानी चादर से अपने मस्तक एवं ग्रीवा को ढक कर एक अतिवृद्ध साधु की भांति कमर को झुकाये मठ से बाहर निकल कर मुख्य द्वार की ओर बढ़े । द्वार पर पहुंचते ही उन्हें अश्वारोहियों ने टोकते हुए कहा - "ओ वृद्ध ! कहां जा रहे हो । राजाज्ञा है कि वह गुर्जर कवि जब तक राज्य सभा में नहीं पहुंच जाय तब तक किसी को न तो मठ के अन्दर प्रवेश करने दिया जाय और न किसी को मठ से बाहर जाने दिया जाय । भ्रतः तुम शीघ्र ही मठ के भीतर लौट जाओ । उस गुर्जरदेश से प्राये विद्वान् साधु को हमें सौंप देने के पश्चात् तुम सभी यथेच्छ जहां कहीं जाना चाहो जा सकोगे ।"
यह सुनते ही अतीव शान्त, गम्भीर पर आक्रोश भरी मुद्रा में छद्मवेशधारी सूर सूरि ने कहा - " राजाश्रों के समान शोभा सम्पन्न वे गूर्जर कवि अन्दर पट्ट पर विराजमान हैं, उनको आप ले जा सकते हैं । हम तो आपके इस नगर में आकर भूखों मर रहे हैं । इस प्राणापहारिणी प्रचण्ड धूप में प्यास से मेरे कण्ठ सूख रहे हैं । इस जराजर्जरित बूढ़े साधु को बिना पानी के तो मत मरने दो, कहो तो पास ही से पानी पी श्राऊं, तुम्हें बड़ा धर्म होगा ।"
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एक अश्वारोही को दया श्रा श्रई । उसने कहा - "अच्छा, अच्छा जाओ । पानी पी कर शीघ्र ही लौट आना ।"
सूराचार्य इस प्रकार अश्वारोहियों के घेरे से बाहर निकले और वे सीधे धनपाल कवीश्वर के निवास स्थान पर पहुंचे। उन्हें देखते ही कवि धनपाल के हर्ष का पारावार नहीं रहा ।
अभिवादनानन्तर उसने हर्षगद्गद् स्वर में कहा - "हे जिनशासनदिवाकर ! यह सम्पूर्ण जैन जगत का सौभाग्य ही है कि आप सकुशल वहां से यहां आकर मुझे कृतकृत्य एवं परमानन्दित कर रहे हैं । "
कवि धनपाल ने गुर्जर भूमि की ओर प्रस्थान करने के लिये समुद्यत ताम्बूलपत्रों के कुछ बड़े व्यापारियों को अपने यहां आमन्त्रित किया । उन्हें भोजन - पानादि
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