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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३
और शास्त्रों के पारगामी विद्वान् बन जायं । मुझे तो केवल यही चिन्ता है कि प्रापका यह शिष्य वर्ग किस प्रकार शीघ्रातिशीघ्र मेरी विद्या को ग्रहण कर जिनशासन प्रभावक महान् श्रमरण बनें । "
गुरु द्रोण ने कहा :- " सूर! सब में गुरण समान रूप से नहीं होते । महान् पुरुषों में जो गुण थे उनमें से करोड़वां अंश भी आज हम में नहीं है । इसलिये गुण अथवा ज्ञान का मन किसी को नहीं करना चाहिये ।"
सूराचार्य ने इस पर विनयपूर्वक निवेदन किया :- "भगवन् ! मुझे किसी बात का कोई गर्व नहीं है । मेरी तो सदा से यहो आन्तरिक इच्छा रही है कि मेरे द्वारा पढ़ाये हुए ये साधु देश के कोने-कोने में विहार कर अन्य दर्शनों के वादियों पर शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त करें। सूर्य की किरणों के समान ही ये साधु आपकी किरणें बनकर संसार में व्याप्त जड़ता का समूलोच्छेद कर दें । ज्ञान का प्रकाश फैलावें जिससे कि आपकी यशोकीर्ति दिग - दिगन्त में व्याप्त हो जाय और जिनशासन की जयपताका समग्र धरा के क्षितिज पर लहराए ।"
गुरु ने कहा :- " प्रभी अध्ययन में निरत इन बालकों की बात तो छोड़ो । अनेक विद्यानों में प्रकांड पाडित्य प्राप्त करके भी क्या तुम राजा भोज की सभा को विजित करके यहां श्राये हो ?"
सूराचार्य ने कहा :- " भगवन् ! प्रापका यह आदेश शिरोधार्य है । आपके इस प्रादेश को जब तक मैं पूर्ण नहीं कर लूंगा तब तक मैं किसी भी प्रकार की कोई भी विकृति ( घृत दुग्ध दध्यादि) ग्रहरण नहीं करूंगा ।"
तदनन्तर वे अपने गुरु को प्रणाम कर अपने स्थान पर जाकर सो गये । प्रातःकाल सूराचार्य ने अपने शिक्षार्थी साधुनों से कहा :- "आज प्रध्यापन का प्रवकाश रहेगा ।"
बाल स्वभाव के कारण छोटे साधु बड़े प्रसन्न हुए । मध्यान्ह में साधुनों द्वारा प्रहार लाये जाने पर द्रोणाचार्य ने सूराचार्य को बुलाया । सूराचार्य तत्काल सेवा में उपस्थित हुए । पर उन्होंने किसी भी विकृति अर्थात् घृत आदि को ग्रहण नहीं किया । द्रोणाचार्य ने समझाया । अन्य वयोवृद्ध गीतार्थ साधुनों ने भो उन्हें समझाया । अन्ततोगत्वा चतुविध संघ ने भी उन्हें यत्किचित् विकृतियां ग्रहण करते रहने का प्राग्रहपूर्ण अनुरोध किया किन्तु सूराचार्य अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहे।
उन्होंने कहा :- "यदि इस विषय में मुझे और कुछ कहा गया तो मैं अनशन कर लूंगा ।"
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