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'वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
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चार्य की सेवा में उपस्थित हए। उस असमय में सबके सामूहिक रूप से उपस्थित होने का गुरु द्वारा कारण पूछने पर मुराचार्य की सारी बातें सुनाते हुए अन्त में उन्होंने कहा :- "भगवन् ! हम सब आपकी शरण में हैं। हमें भय है कि हमारे उपाध्याय सूराचार्य लोहे की डंडी से हमारा सिर फोड़ देंगे।"
अपने शिष्यों से सम्पूर्ण परिस्थिति को जान कर द्रोणाचार्य ने उन्हें प्राश्वस्त करते हए कहा--"सूराचार्य तुम्हारे साथ वैर के कारण नहीं अपितु तुम्हारे ही हित के लिये तुम्हें दंड देते हैं। उनका आन्तरिक लक्ष्य यही है कि तुम सम्पर्ण शास्त्रों का शीघ्रतापूर्वक अध्ययन कर स्व-पर कल्याण में सक्षम बन जानो। हां, उन्होंने लोहे के डण्डे के प्रयोग की जो बात कही है वह तो हमारे श्रमण धर्म के ही विरुद्ध है । मैं सूराचार्य को अच्छी तरह से समझा दूंगा कि वह तुम्हारे साथ इस प्रकार व्यवहार न करे।"
अपने गुरु के इस कथन से आश्वस्त होकर वे साधु-शिष्य अपने-अपने स्थान पर जाकर सो गये । सूराचार्य भी कुछ क्षणों पश्चात् गुरु की सेवा में गुरु की सेवासुश्र षा करने के लिये उपस्थित हुए। उन्होंने गुरु को वन्दन किया । किन्तु कृत्रिम कोप को इंगित से प्रकट करते हुए गुरु द्रोण ने उनकी वन्दना को स्वीकार नहीं किया।
यह देखकर सूराचार्य ने विनयपूर्वक अपने गुरु से पूछा :-"आर्य ! प्राज मुझे सदा की भांति प्रापका कृपा प्रसाद प्राप्त नहीं हो रहा है। आपकी अप्रसन्नता का कारण क्या है ?"
गुरु द्रोण ने कहा :--"लोह दण्ड तो यमराज का शस्त्र है न कि पंच महाव्रतधारी साधुनों का; क्योंकि हिंसाकारी होने के साथ ही साथ लोह दंड परिग्रह की परिधि में भी प्राजाता है । आदि काल से लेकर आज तक क्या किसी उपाध्याय ने अपने शिष्य वर्ग को लोहदण्ड से दण्डित किया है ? शिक्षार्थी वर्ग के हृदय को विदीर्ण कर देने वाली इस प्रकार की भावना तुम्हारी बद्धि में कैसे प्राई ? यह बड़े पाश्चर्य की बात है।"
सूराचार्य तत्काल सारी स्थिति समझ गये। उन्होंने खड़े होकर अपने गुरु के समक्ष सांजलि शीष झुकाते हुए विनीत स्वर में कहा :-"पूज्य गुरुदेव ! प्रापका वरद हस्त सदा मेरे सिर पर रहा है। आज आपके मन में यह आशंका कैसे उत्पन्न हो गई कि मैं लोह दंड से अपने शिक्षार्थियों को दंडित करूंगा। जिस प्रकार लकड़ी की डंडी से शिक्षार्थी के शरीर पर प्रहार किया जाता है उस प्रकार लोहे के डंडे से साधु शिक्षार्थियों पर प्रहार नहीं किया जा सकता। यह तो केवल उनके मन में भय उत्पन्न करने के लिये ही किया गया है, जिससे कि वे शीघ्रातिशीघ्र सब विद्याओं
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