________________
७६६ ]
[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास --भाग ३
राजा भोज के गर्व को क्षण भर में धलिसात कर देने वाले इस अतीव सुन्दर उत्तर को सुनते ही सभी सभ्य हर्षविभोर हो उठे। सबने समवेंत स्वरों में सूराचार्य की प्रत्यद्भुत् कवित्वशक्ति और प्रत्युत्पन्नमतिसम्पन्नता की प्रशंसा की। महाराज की प्रसन्नता और प्रान्तरिक प्रात्मतुष्टि का तो कोई पारावार ही नहीं रहा । उसने तत्काल अपने राजपुरुषों को भेज कर मालवराज भोज के प्रधानपुरुषों को अपनी राजसभा में बुलाया और सूराचार्य द्वारा निर्मित गाथा उनके हाथ में रखते हुए कहा :- "सरस्वती के परमोपासक मालवराज को मेरी ओर से यह समर्पित कर देना।" यह कहकर राजा भीम ने उन्हें ससम्मान विदा किया।
भोज भूपाल के विशिष्ट राजपुरुषों ने धारा की ओर प्रस्थान किया, और वहां पहुंच कर उन्होंने गुर्जरेश भीम का वह पत्र अपने स्वामी की सेवा में समर्पित किया। उस गाथा को पढ़ते ही राजा भोज अवाक् और स्तब्ध रह गया। अद्भुत् कवित्व शक्ति के चमत्कार से चमत्कृत राजा भोज के मुख से सहसा ये भाव उद्गत हो उठे :--"धन्य है वह गुर्जर देश, जहां इस प्रकार के अद्भुत प्रतिभाशाली कवि उस धरा के शृंगार के समान विद्यमान है । इस प्रकार के उच्च कोटि के कवियों के वैभव से सम्पन्न देश को कौन पराजित कर सकता है।"
उधर राजा भीम ने कृतज्ञताभरे शब्दों में सूराचार्य को बड़े सम्मान के साथ विदा करते हुए कहा :-"पाप जैसे प्रत्युत्पन्नमति उच्च कोटि के कवि के यहां रहते हुए विद्वानों के विशाल समूह से परिवृत्त भोज मेरा क्या कर सकता है।"
गुरु द्रोण ने अपनी शिष्य मण्डली को सभी विद्यानों में निष्णात करने के लिये सूराचार्य को उनके शिक्षण-दीक्षण प्रादि का कार्यभार सौंपा। सूराचार्य बड़े परिश्रम के साथ उन साधनों को पढ़ाने लगे। जटिल से जटिल विषय भी उन शिष्यों के सहज ही समझ में आ जाय इस प्रकार विशद् विवेचनपूर्वक सूराचार्य उन साधुनों को पढ़ाते। पढ़ाये हुए ग्रन्थों में से परीक्षार्थ पूछने पर यदि कोई शिक्षार्थी साधु किंचित्मात्र भी त्रुटि कर देता तो सूराचार्य के क्रोध की सीमा नहीं रहती। युवावस्था और प्रकांड पांडित्य उनके प्रावेश में अभिवृद्धि कर देते और वे रजोहरण की डंडी से उन शिक्षार्थी साधुओं को पीट भी देते। कहा जाता है कि वे प्रतिदिन अोघे की एक डंडी अपने विद्यार्थियों को पीटने में ही तोड़ देते थे।
इससे भी सन्तुष्ट न होकर सूराचार्य ने एक दिन अपने एक श्रद्धालु श्रावक से कहा कि वह उनके रजोहरण के लिये एक लोहे की डंडी बनवाए।
यह सुनकर तो शिष्य साध बड़े भयभीत हए । येन केन प्रकारेण उन्होंने वह दिन तो व्यतीत किया । लोहे की डंडी से पिटाई होने के भय से उन विद्यार्थियों को रात्रि में बड़ी देर तक नींद नहीं आई । अर्द्ध रात्रि के समय वे अपने गुरु द्रोणा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org