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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
राजा भोज के अमात्यों के चले जाने पर भीम ने अपने प्रधानमन्त्री आदि अमात्यों को आदेश दिया कि इस गाथा का समुचित उत्तर प्रदान करने में सक्षम किसी अद्भुत प्रतिभा सम्पन्न विद्वान् की खोज की जाय ।
राजा भीम की सभा में बैठे हए अनेक कवियों ने अपनी बुद्धि के अनुसार उस आर्या (गाथा) का समुचित उत्तर प्रदान करने की इच्छा से अनेक प्रति पार्याों की रचनाएं की। किन्तु राजा को उनमें से एक भी आर्या चमत्कारपूर्ण नहीं लगी। इस प्रकार के किसी अप्रतिम प्रतिभाशाली विद्वान् की खोज के लिये महामात्य अमात्यों एवं अन्य राजपुरुषों ने सब धर्मों के आश्रमों में, मठों, मन्दिरों, स्थानकों, धर्म स्थानों आदि में चौराहों पर, तिराहों पर, चैत्यों के झरोखों में जाना आना शुरु किया।
एक दिन वे राजा भीम के प्रधान पुरुष गोविन्दसूरि के चैत्य में पहुंचे। उस दिन संयोग से उस चैत्य में किसी बड़े पर्व के उपलक्ष्य में नृत्यकला में निष्णात नर्तकियों के नृत्य संगीत का आयोजन किया गया था। विभिन्न भाव भंगिमाओं के साथ अंग-प्रत्यंगों के पुनः पुनः संचालन, संगीत की स्वर लहरियों के प्रारोह अवरोह के अनुसार द्रुततर गति से पाद निक्षेप, कटि संचालन और देह यष्टि को चारों ओर पुनः पुनः घुमाने फिराने प्रादि के परिश्रम से पूर्णतः परिश्रान्त हुई मुक्ताफल तुल्य मुख मण्डल पर मंडित स्वेद कणों को पौंछती हुई एक नर्तकी ने अपना स्वेद सूखाने के लिये पवन की टोह में संगमरमर के प्रस्तर से निर्मित एक स्तम्भ को अपने बाहुपाश में आबद्ध कर लिया और वह वहां निश्चल मुद्रा में विश्राम लेने लगी।
उसे इस स्थिति में देखकर वहां उपस्थित विशिष्ट अतिथियों, सम्माननीय नागरिकों और उच्च कोटि के विद्वानों ने गोविन्द सूरि से निवेदन किया :"प्राचार्य देव ! इस नर्तकी की और इस प्रस्तर स्तम्भ की इस प्रकार की अद्भुत दशा का सुन्दर काव्य में चित्रण करवाया जाय ।"
सूराचार्य वहीं उपस्थित थे । गोविन्द सूरि ने सूराचार्य की ओर देखते हुए उन्हें इस अद्भुत दृश्य के वर्णन करने का अनुरोध किया।
प्राशु कवि सूराचार्य ने अपने अद्भुत काव्य कौशल से सबको चमत्कृत करते हुए निम्नलिखित श्लोक सुनाया :यत् कंकणाभरणकोमलबाहुबल्लिसंगात् कुरंगकदृशोर्नवयौवनायाः । न स्विद्यसि प्रचलसि प्रविकम्पसे त्वं तत् सत्यमेव दृषदा ननु निर्मितोऽसि ॥२६॥
(प्रभावक चरित्र) पृष्ठ १५२
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