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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
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प्राचार्य होगा । उन्होंने बड़े आदर के साथ उस बालक को अपनी सेवा में रख लिया और अपनी लघु भ्रातृपत्नी को अनेक प्रकार से सान्त्वना प्रदान कर आश्वस्त किया ।
द्रोणाचार्य ने बालक महिपाल को शब्द शास्त्र, प्रमाण नय, साहित्य, आगम, संहिता आदि विविध विद्याओं का क्रमिक पाठ प्रारम्भ करवाया । वे सब विद्याएं सदैव महिपाल के कंठों में आकर विराजमान होने लगीं । गुरु द्रौण तो केवल साक्षी मात्र ही थे ।
राचार्य के प्रति महिपाल के मन में प्रगाढ़ प्रीति एवं प्रास्था उत्पन्न हो गई । वह क्षण भर के लिये भी गुरु चरणों से दूर रहने में पीड़ा का अनुभव करता था अतः उसने द्रोणाचार्य से श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली । सभी विद्याओं और शास्त्रों का तल-स्पर्शी पांडित्य प्राप्त कर लेने के पश्चात् आचार्य द्रौण ने उसे प्राचार्य पद के सर्वथा सर्वाधिक सुयोग्य समझकर प्राचार्य पद प्रदान किया और इस प्रकार मुनि महिपाल प्राचार्य पद पर प्रासीन होने के पश्चात् सूराचार्य के नाम से लोक-विश्रुत हुए ।
एक दिन सरस्वती के सदन और कलाओं के महासिन्धु राजा भोज के प्रधान पुरुष राजा भीम की राजसभा में उपस्थित हुए और उन्होंने निम्नलिखित एक गाथा का राज्यसभा में तालस्वर से उच्चारण किया :
हेला निद्दलिय गइंदकुंभपयडियपयावपसरस्स ।
सीहस्स मरण समं न विग्गहो नेय संधारणं ।। १५ ।।
( प्रभावक चरित्र पृष्ठ १५२ )
अर्थात् – जिसने घनघोर गर्जन के साथ छलांग भरते हुए केवल एक ही पंजे के प्रहार से मदोन्मत्त गजराज के गंडस्थल को विदारित कर अपना अप्रतिम प्रभाव चारों ओर प्रकाशित कर दिया है उस सिंह का किसी एक मृग के साथ न तो विग्रह ही हो सकता है और न सन्धि ही ।
राजा भीम ने अत्यन्त तिरस्कार भाव से भरी हुई उक्त गाथा को सुनकर पूर्ण संयम से काम लिया । ललाट में किंचित्मात्र भी सलवट अथवा आंखों में लाली न आने दी ।
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राजा भोज के प्रधानों का राजा भीम ने यथोचित स्वागत सत्कार किया और अन पान निवासादि की समुचित व्यवस्था का आदेश देकर उन लोगों को विश्राम करने का परामर्श दिया ।
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