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सूराचार्य
विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के जैन जगत् के गण्यमान्य उच्चकोटि के विद्वानों, महा कवियों और महान् प्रभावक श्रमणवरों में सूराचार्य का स्थान बड़ा महत्वपूर्ण है।
गुजरात प्रदेश के इन महान् प्राचार्य ने मालव प्रान्त में जाकर 'सरस्वतीवरलब्धप्रसाद' के विरुद से अभिहित किये जाने वाले घाराधीश भोजराज की सभा को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की। केवल यही नहीं, अपितु राजा भोज की सभा के उद्भट वादी को शास्त्रार्थ में पराजित करने के उपरान्त भी अनेक संकटपूर्ण स्थितियों का सामना करते हुए सकुशल जीवितावस्था में गुजरात लौट आये।
उस समय देश के पंडितवर्ग में यह धारणा घर किये हए थी कि जो भी विद्वान् राजा भोज की ओर से शास्त्रार्थ के लिये खड़े किये गये विद्वान् को पराजित कर देता है उस विजयी विद्वान् को येन केन प्रकारेण छल प्रपंच आदि के द्वारा मरवा दिया जाता है । सूराचार्य के जीवन का परिचय संक्षेप में इस प्रकार है :
गूर्जर प्रदेश में अनहिलपुरपट्टन नामक पट्टनगर में महान् शक्तिशाली भीम नाम के राजा राज्य करते थे। राजा भीम जिन शासन के प्रति प्रगाढ़ आस्थावान् था । वह न्याय और नीतिपूर्वक प्रजा का परिपालन, संवर्द्धन, संरक्षण करता था। वह बड़ा लोकप्रिय राजा था । द्रौरण नामक जैनाचार्य राजा के धर्मगुरु थे जो नियमित रूप से राजा और मन्त्री वर्ग को धर्मशास्त्रों की शिक्षा दिया करते थे। वे गुरु द्रौण राजा भीम के क्षत्रिय कुलोत्पन्न मामा थे। द्रोण के एक छोटे भाई भी थे। जिनका नाम संग्रामसिंह था । जिनके महिपाल नाम का एक विशिष्ट प्रज्ञा, एवं प्रतिभाशाली पुत्र था।
संग्रामसिंह के असामयिक देहावसान के पश्चात् महिपाल की माता अपने छोटे से बालक को साथ लेकर अनहिलपुरपट्टन पहुंची। उसने द्रोणाचार्य के समक्ष उपस्थित होकर अपने पुत्र को उनके चरणों पर रखते हुए निवेदन किया :"प्राचार्य देव ! आप अपने भ्रातृज को अपनी सेवा में रखिये और इसको समुचित शिक्षा-दीक्षा प्रदान कीजिये।'
गुरु द्रोण ने बालक महिपाल के सुन्दर शारीरिक सुलक्षणों और निमित्त के बल पर यह जान लिया कि यह बालक आगे जाकर जिन शासन का महान् प्रभावक ..
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