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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की। कुछ समय पश्चात् शोभनाचार्य तीव्र ज्वर की बाधा से पीड़ित हो अपनी इहलीला समाप्त कर स्वर्गवासी बन गये।
महाकवि धनपाल ने शोभनाचार्य द्वारा रचित "शोभनस्तुति" नामक ग्रन्थ पर टीका की रचना की।
अपनी मायु का अवसानकाल सन्निकट जानकर महाकवि धनपाल महाराज भोज की अनुज्ञा प्राप्त कर धर्म-साधना हेतु अनहिल्लपुर पाटण गया। वहां अहर्निश महेन्द्रसूरि की सेवा में रहते हुए उसने धर्मसाधना प्रारम्भ की । गही वेष में रहते हुए भी उसने अपने समस्त दुष्कृतों की समीचीन रूपेण अपने गुरु के समक्ष पालोचना की । तपश्चरण के साथ अध्यात्मसाधना में निरत रहते हुए धनपाल ने जीवनपर्यन्त चारों प्रकार के माहार का त्यागकर अनशन पूर्वक संलेखना-संथारा किया। शास्त्रों के पारगामी स्थविर मुनियों ने उसकी पंडितमरण की अन्तिम साधना के समय निर्यापना की । अन्त में धनपाल ने समाधिपूर्वक प्रायु पूर्ण कर सौधर्म नामक प्रथम स्वर्ग में देव रूप में उत्पन्न हुमा। (प्रभावक चरित्र के माधार पर)
सूराचार्य के प्रकरण में धनपाल के हृदय में जिनशासन के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा एवं प्रेम के सम्बन्ध में प्रकाश डालते हुए बताया गया है कि उसने सूराचार्य को, उन पर माये घोर प्राण-संकट के समय किस प्रकार धारा नगरी से गुप्तरूपेण बाहर निकालकर प्रणहिल्लपुर पाटण पहुंचाया।
- महाकवि धनपाल विक्रम की १०वीं-११वीं शताब्दी का एक अग्रगण्य जिनशासन-प्रभावक जैन महाकवि था। "पाइय लच्छी नाममाला" नामक अपनी कृति में जो धनपाल ने प्रशस्ति दी है, उससे उसका समय अन्तिमरूपेण सुनिश्चित रूप से विक्रम की १०वीं-११वीं सताब्दी सिद्ध होता है । महेन्द्रसूरि, सूराचार्य, शोभनाचार्य मादि विद्वान् प्राचार्यों के कालनिर्णय में वह प्रशस्ति बड़ी सहायक है अतः उसे अविकल रूप से यहां उदत किया जा रहा है :
विक्कमकालस्स गए भ उणत्तीसुत्तरे सहस्संमि । (वि. सं. १०२९) मालव नरिंद-घाडीए लूडिए मन्नखेडमि ॥ धारा नयरीए परिठिएण मग्गेठियाए प्रणवज्जे । कज्जे करिणठ्ठ बहिणीए सुदरी नामधिज्जाए । कइयो अंध जग किंवा कुसलंत्ति पयारणमंतिमा वण्णा । नामंमि जस्स कमसो, तेणेसा विरइया देसी ॥
मर्यात-वि० सं० १०२६ में मालवा के राजा ने जिस समय राष्ट्रकूट राजामों की राजधानी मान्यखेट को लूटकर वहां राष्ट्रकूट राज्य को समाप्त किया,
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