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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
[ ७५६ "रत्नगर्भा वसुन्धरा" माना गया है। वस्तुतः यह पृथ्वी सभी प्रकार के रत्नों की खनि है। इसमें न तो उद्भट विद्वानों की नास्ति रही है, न रहेगी और न पाज भी उनकी नास्ति है । इस धरामण्डल पर अनेक उच्च से उच्च कोटि के विद्वान् विद्यमान हैं। वे विद्वान अपने प्रकाण्ड पाण्डित्य का प्रदर्शन नहीं करते, इसी कारण अधिकांश लोगों की दृष्टि से छूपे हुए हैं। यदि तुम इस प्रकार के उच्चकोटि के विद्वान् के दर्शन करने के उत्कट अभिलषुक हो तो सत्यपुर अवश्य जामो, वहां तुम्हें सभी विद्याओं के निधानस्वरूप महा विद्वान् शान्तिसूरि के दर्शन होंगे। उनके साथ वार्तालाप करते ही तुम्हारे मन में विद्वानों के सम्बन्ध में जो यह "नास्ति" की कल्पना घर कर गई है वह “अस्ति" के रूप में अवश्यमेव परिवर्तित हो जायगी।"
धनपाल के संकेत पर राजा भोज ने उस धर्म कौल नामक विद्वान् को परास्त हो चुकने के उपरान्त भी एक लाख स्वर्ण-मुद्राएं प्रीतिदान के रूप में देने का अपने कोषाध्यक्ष को आदेश दिया किन्तु उसने यह कहते हुए वह राशि लेना अस्वीकार कर दिया-"मान (सम्मान-प्रतिष्ठा) ही मनीषी मानवमात्र का महान् जीवन-धन है। उसके चले जाने पर तो वह निष्प्राण शव के समान ही है।"
पराजित हो जाने के पश्चात् धर्म कोल के लिये धारा नगरी का निवास प्रतप्त अग्निकुण्ड में रहने तुल्य दाहक प्रतीत हो रहा था। धनपाल के मुख से शान्तिसूरि की विद्वत्ता की महिमा सुन कर धर्म कोल को विद्वंद् दर्शन का एक अच्छा मिष (बहाना) मिल गया। वह तत्काल धारा नगरी रो विदा हो सत्यपुर की ओर प्रस्थित हुप्रा । सत्यपुर पहुंचकर धर्म कोल ने शान्तिपूरि के साथ भी शास्त्रार्थ किया। शान्तिसूरि की विद्वता से वह बड़ा प्रभावित हुमा और अन्त में शान्तिसूरि के समक्ष अपनी पराजय स्वीकार करते हुए उनकी विद्वता की भूरि-भूरि प्रशंसा की।
धनपाल के लघु सहोदर शोभनाचार्य ने भी जिनेन्द्र प्रभु की यमकालंकारों से समन्वित और भावपूर्ण स्तुतियों की रचना की। शोमनाचार्य जिनेश्वरों की स्तुतियों की रचना में इतने अधिक तल्लीन हो गये कि सोते, उठते, चलते-फिरते प्रतिपल प्रतिक्षण भक्ति रस में ही निमग्न रहते । मधुकरी के लिए भटन करते-करते एक दिन वे भक्ति रस में सर्वात्मना-सर्वभावेन निमग्न हो जाने के कारण एक ही गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिये तीन बार चले गये। गहिणी द्वारा उस बात की मोर ध्यान दिलाये जाने पर उन्होंने पश्चाताप प्रकट करते हुए कहा कि भक्ति-रस में लीनता के कारण उन्हें इस प्रकार का कोई मान ही नहीं रहा।
शोभनाचार्य की इस प्रकार की तन्मयता की बात जब उनके गुरु को विदित हुई तो अपने शिष्य के मुख से उन्होंने उनकी रचनाओं को सुना। अपने शिष्य की अद्भुत कवित्वशक्ति से वे बड़े चमत्कृत हुए। उन्होंने शोभनाचार्य की कवित्व शक्ति
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