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________________ ७५८ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ में एकान्ततः अनिच्छा की बात सुनकर उसे बड़ा दुःख हुआ। उसने अपने चरों के माध्यम से धनपाल को धारानगरी लौट आने का आग्रह करते हुए कहलवाया"सखे ! तुम सदा राजा मुंज के परम प्रीतिपात्र रहे हो। उन्होंने तुम्हें अपना पुत्र मानकर सदा पुत्र की भांति ही तुम्हारा लालन-पालन, शिक्षण-दीक्षण किया था। मैंने भी सदा तुम्हें अपने ज्येष्ठ भ्राता के तुल्य ही माना। मैं तो तुम्हारा छोटा भाई हं, ऐसी स्थिति में तुम्हें अपने छोटे भाई की बात पर इस प्रकार अप्रसन्न नहीं होना चाहिये । तुम्हें भली-भांति स्मरण होगा कि एक दिन राजा मुंज ने तुम्हें अपने अंक में बिठा कर कहा था-"वत्स धनपाल ! तुम वस्तुतः कर्चाल सरस्वती हो। तुम्हें यह कभी नहीं भूलना चाहिये कि धारा नगरी तुम्हारी स्वर्ग से भी महामहिमामयी महामहती मातृभूमि है। आज सुदूरस्थ प्रान्त से पाया हुआ एक पण्डितंमन्य अभिमानी विद्वान् सरस्वती की लीलास्थली धारानगरी के यश को धूलिसात् करने पर कटिबद्ध हो रहा है । अतः अपनी जन्मभूमि की गौरवगरिमा की रक्षा हेतु शीघ्र ही धारानगरी में लौट प्रायो। यदि तुमने धारा पाने में किंचित्मात्र भी विलम्ब किया तो यह धर्म कौल नामक अभिमानी परदेशी मालवराज्य की राजसभा को वाद में पराजित कर एवं धारा के समुन्नत शुभ्र माल पर पराजय का काला तिलक लगा कर यहां से चला जायगा। मानापमान की इस विकट निर्णायक वेला में सिद्धसारस्वत ! तुम्हें तुम्हारी मातृभूमि पुकार रही है।" दूत के मुख से राजा भोज का यह सन्देश सुन कर धनपाल के मानस में मातृभूमि के प्रति अनुराग का सागर उद्वेलित हो उठा । उसने तत्क्षण धारा नगरी की मोर प्रस्थान कर दिया। द्रुततर गति से यात्रा पूरी कर धनपाल धारा नगरी पहुंचा । अपने बालसखा के पाने का समाचार सुनकर भोज भूपति उसकी अगवानी के लिये उसके सम्मख गया। भोजराज ने धनपाल को देखते ही अपने भुजपाश में प्राबद्ध करते हुए उसे अपने वक्षस्थल से लगा लिया और पश्चातापपूर्ण स्वर में कहा-"बन्धो ! मुझे अपने प्रविनयपूर्ण अपराध के लिये क्षमा कर दो।" कवीश्वर और नरेश्वर के हगों से प्रवाहित हुए हर्षाश्र प्रों ने उन दोनों अनन्य बालसखात्रों के मनोमालिन्य को तत्काल सदा-सदा के लिये धो डाला । एक दिन भोजराज की राज्यसभा में विद्वान् धर्म कौल और महाकवि धनपाल के बीच शास्त्रार्थ हुआ। वितण्डावाद में निष्णात विद्वान धर्म कौल ने जब भली-भांति समझ लिया कि धनपाल वस्तुत: उच्चकोटि का विद्वान् और सिद्ध सारस्वत कवि है, तो उसने वितण्डावाद का अवलम्बन छोड़कर यह कहते हुए अपनी पराजय स्वीकार कर ली कि वस्तुत: धनपाल महान् विद्वान् और अप्रतिम कवित्व शक्ति के धनी महा कवि हैं। मैं इनके.समक्ष अपनी पराजय स्वीकार करता है। इस धरातल पर इनकी तुलना का कोई कवि अथवा विद्वान् नहीं है। धनपाल ने तत्काल धर्म कोल को सम्बोधित करते हए कहा-"विद्वन ! यह मत कहो कि धरा पर कोई और विद्वान् नहीं है, क्योंकि युगादि से ही इस पृथ्वी को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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