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________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ७५७ उधर कतिपय दिनों पश्चात् राजा भोज ने अपने विश्वासपात्र सेवक को महाकवि धनपाल के घर उसे बलाने के लिये भेजा। जब सेवक से भोज को यह विदित हुअा कि धनपाल अपने कूटम्ब के साथ धारा नगरी छोड़ कर कहीं अन्यत्र चला गया है तो उसके हृदय को गहरा आघात पहुंचा । उसने मन ही मन सोचा"जिस समय में यह सोचता हं कि धनपाल बिना किसी प्रकार के संकोच के मेरी बात का विरोध कर बैठता था, तब तो मुझे ऐसा अनुभव होता है कि ऐसा मेरे मन पर मनचाही चोट करने वाला वह धनपाल चला गया तो कोई बात नहीं । यह तो एक साधारण सी बात है किन्तु जब मैं गहराई से विचार करता हूं तो सहज ही यह प्रकट हो जाता है कि साक्षात् सरस्वती के समान सत्य, सुन्दर और कल्याणकारी यथातथ्य वाणी बोलने वाला धनपाल के अतिरिक्त अन्य कोई दृष्टिगोचर ही नहीं होता । यह मेरे मन्दभाग्य का ही फल है कि इस प्रकार के कविवर राजहंस के संसर्ग से मैं वंचित हो गया हूं।" धनपाल की अनुपस्थिति राजा भोज को अहर्निश हृदय के शूल के समान खटकने लगी। उन्हीं दिनों धर्म नाम का एक विद्वान् राजा भोज की राजसभा में उपस्थित हुमा और अनेक गर्वोक्तियों के साथ उसने मन-चाहे विषय पर शास्त्रार्थ करने के लिये, वहां उपस्थित सभी विद्वानों को ललकारा । राज सभा के सभी विद्वान् अपने अपने नयनयुगल नीचे की ओर झुकाये हए मौनस्थ रहे। किसी भी विद्वान् ने धर्म नामक उस विद्वान् के साथ शास्त्रार्थ करने का साहस प्रकट नहीं किया। इस प्रकार की दयनीय स्थिति देख कर भोज को बड़ी निराशा हुई। उसके मुख से सहसा इस प्रकार के उद्गार प्रकट हो गये-" हा देव ! एक धनपाल के बिना माज मेरी सम्पूर्ण राजसभा वस्तुतः शन्य ही है। अब उस धनपाल के सम्बन्ध में चरों के माध्यम से ज्ञातं किया जाय कि इस समय वह कहां है और उसे किस प्रकार यहां लाया जा सकता है"-इस प्रकार मन ही मन विचार कर राजा ने धनपाल की खोज में चारों ओर अपने विश्वस्त चर भेजे। भोज भूपाल द्वारा धनपाल की खोज में गये हुए दूतों में से एक दूत सत्यपुर पहुँचा । उसने अपने स्वामी की ओर से कवि धनपाल की सेवा में निवेदन किया कि वे शीघ्र ही धारा नगरी के लिये प्रस्थान कर दें। "धारा निवास के प्रति अब मेरे मन में लवलेश मात्र भी रुचि नहीं रही है। राजाधिराज भोज से मेरी मोर से निवेदन करना कि में यहाँ सभी-भांति प्रसन्न हैं और इस तीर्थस्थान में जगदैकबन्धु त्रिलोकीनाथ जिनेश्वर की पाराधना में संलग्न हूं।"-यह कहते हुए धारानगरी में निवास की अपनी नितान्त प्ररुचि अभिव्यक्त की। अपने चर के मुख से अपने अनन्य बालसखा धनपाल के कुशल-क्षेम के समाचारों को सुन कर तो भोज को प्रसन्नता हुई किन्तु उसके धारानगरी लौटने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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