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________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य । [ ७५३ अवरुद्ध करने वाले हैं। कविवर बन्धो! जो स्वयं विपुल परिग्रह के भार से दबे हुए, महा आरम्भ-समारम्भ के कार्यों में संलग्न, प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से जीवहिंसाकारी कार्यों में प्रवृत्त हैं, जिनमें सभी प्रकार की अभिलाषाएं विद्यमान हैं और जो अध्यात्मज्ञान से विहीन हैं, उन लोगों को गुरु कैसे कहा और माना जा सकता है । इस प्रकार के तथाकथित गुरु तो वस्तुतः स्वयं संसार सागर में डबने वाले और दूसरों को डुबाने वाले हैं। उन्हें तारक गुरु कैसे कहा जा सकता है ? अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, दया, मनशुद्धि, क्षमा, मार्दव, ऋजुता, सन्तोष और तपश्चरण-इन सद्गुण सम्पन्न सत्कार्यों में यथाशक्ति प्रवृति और उत्तरोत्तर प्रगति करते रहना ही सच्चा धर्म है, जो सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, वीतराग जिनेन्द्र देव द्वारा प्राणिमात्र के कल्याण के लिये प्रदर्शित किया गया है। इसके विपरीत जिस तथाकथित धर्म में हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील-सेवन, महा आरम्भ-समारम्भ आदि के माध्यम से परिग्रह संचय, प्रसन्तोष, कुटिलता, कर्कशता, पशुहिंसा आदि सदोष कार्यों का संपुट लगा हमा है, जिसमें पग-पग पर प्रारिणहिंसा की गन्ध आती है, वह धर्म के नाम से कैसे अभिहित किया जा सकता है।" अपने लघु सहोदर शोभनाचार्य के मुख से इन सारगर्भित उपदेशों को सुनते ही महाकवि धनपाल के अन्तर्मन में बोधिबीज अंकुरित हो उठा। सम्यक्त्व सुरतरु की सुवास से उसका मन मगमगायमान हो मुदित हो उठा। दृढ़ संकल्प से प्रोतप्रोत सुदृढ़ स्वर में धनपाल ने करबद्ध हो शोभनाचार्य से कहा-"ज्ञानसिन्धो ! मैं सद्गति दायक जैन धर्म को अन्तर्मन से अंगीकार करता हूं।" सर्वप्रथम धनपाल ने अपने उस घोर पाप की विशुद्धि का दृढ़ संकल्प किया जो उसने मालव राज्य में जैन श्रमरणों के विचरण पर राजा भोज की प्राज्ञा से प्रतिबन्ध लगवाने के रूप में अजित किया था। धनपाल ने राजा भोज से निवेदन कर प्रतिबन्ध को निरस्त करवा दिया। धारा नगरी के जैन संघ ने उस प्रतिबन्ध के हटा दिये जाने के अनन्तर महेन्द्रसरि की सेवा में उपस्थित हो, उन्हें धारा नगरी में पधारने और वहां जिनधर्म की अपने उपदेशामृत से श्रीवृद्धि करने की प्रार्थना की। संघ की विनति को स्वीकार कर महेन्द्रसूरि भी धारा नगरी में पधारे । महेन्द्रसूरि के उपदेशों से धनपाल की सम्यक्त्व में आस्था दृढ़ से दृढ़तर और दृढ़तर से दृढ़तम होती गई । वह सदा इस बात के लिये सजग रहता था कि अज्ञात अवस्था में भी उसके सम्यक्त्व में कहीं किंचित्मात्र भी कोई दोष न लग जाय । यज्ञों में की जाने वाली हिंसो का धनपाल ने डटकर विरोध किया और एक बार तो राजा द्वारा यज्ञ में की जाने वाली हिंसा का धनपाल द्वारा विरोध किये जाने के परिणामस्वरूप धनपाल को राजा भोज का ऐसा कोपभाजन बनना पड़ा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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