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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास--भाग ३
के मालव राज्य में विचरण पर प्रतिबन्ध लगवा कर घोर पाप का उपार्जन किया है, इस बात का मुझे बड़ा दुःख है। अब मैं अपने इस पाप की पूर्णरूपेण शुद्धि करने का अभिलषुक हूं। वस्तुतः हमारे पिताश्री और आप महान् भाग्यशाली एवं क्षीर-नीर-विवेक की श्लाघायोग्य बुद्धि से सम्पन्न हैं, जो आप दोनों ने भयावहा भवाटवी में अनंतकाल तक भ्रमण करवाने वाले कर्मबंधनों का समलोच्छेद करने में सर्वथा सक्षम और अन्त में शाश्वत, अक्षय-अव्याबाध अनन्त सुख प्रदान करने वाले जैन धर्म को स्वीकार किया है। मैं तो अभी तक विमढ़ बना हुअा अधर्म को ही धर्म समझ कर धर्माभास के महाविनाशकारी क्रोड़ में पड़ा हुआ हूं। हे अनुज ! तुम वस्तुतः हमारे वंशरत्नाकर के कौस्तुभमणि हो, अतः मुझ पर कृपा कर मुझे उस वास्तविक धर्म का स्वरूप समझाओ जो भवप्रपंच के सृजनहार कर्मसमह का समूलोच्छेद कर अक्षय आत्मिक सुख का प्रदाता है।"
बोधि-बीजार्थी अपने ज्येष्ठ भ्राता के आंतरिक उद्गारों को सुन शोभनाचार्य का मानस विशुद्ध वात्सल्य की उत्ताल तरंगों से तरंगित हो उठा । उन्होंने सुमधुर कण्ठस्वर में कहा-"प्राप हमारे कुलाधार हैं। आपके अन्तर्मन में उत्पन्न हुई धर्म के मर्म को समझने की जिज्ञासा वस्तुतः स्तुत्य है । मैं आपके समक्ष देव, धर्म और गुरु के स्वरूप के साथ धर्म के मर्म के सम्बन्ध में थोड़ा प्रकाश डालता हं, आप उसे एकाग्रचित्त हो सुनिये एवं हृदयंगम कीजिये।
प्राणिमात्र के सर्वाधिक प्रबल एवं प्रमुख शत्रु महामोह और काम (विषयवासनासक्ति) को जीत लेने वाले जिनेन्द्रदेव ही वस्तुतः सच्चे देव हैं, जो स्वयं कर्मबन्धनों से पूर्णत: मुक्त और दूसरे भव्यप्राणियों को मुक्त करवाने में सर्वथा सक्षम हैं। सुनिश्चित रूपेण वे जिनेन्द्र देव ही मुमुक्षुओं को परमानन्दप्रदायी निरंजन-निराकार शिवपद प्रदान करने वाले हैं। जो देव रागद्वोष मूलक शाप देने व अनुग्रह करने वाले, विषय-वासनाओं के घोर पंकिल दल-दल में निमग्न एवं स्त्री, शस्त्र तथा माला को धारण करने वाले हैं, वे देव तो वास्तव में राजा के समान ही रुष्ट होने पर रंक और तुष्ट हो जाने पर राव बना देने वाले हैं। ध्यानपूर्वक विचार किया जाय तो राजा में और उन शापानुग्रहादि प्रदान करने में समर्थ देवों में कोई विशेष अन्तर नहीं ।
सच्चे देव के पश्चात् सही अर्थों में सच्चे गुरु वे ही हैं जो संसार के प्राणिमात्र के अनन्य बन्धु, शत्रु तथा मित्र सभी पर समान भाव रखने वाले, पांचों इन्द्रियों और मन को वश में रखने वाले, प्राणिमात्र के श्रद्धाकेन्द्र, सदाचार से प्रोतप्रोत संयम के साक्षात साकार स्वरूप, प्रतिपल प्राणि वर्ग के कल्याण में निरत, अहर्निश सब दु:खों के मूल कारण कर्मबंधनों को काटने में प्राणपण से संलग्न और प्रात्मनद को कर्म जलौघ से प्रतिपल आपूरित करते रहने वाले प्रास्रव-द्वारों को इन्द्रिय दमन, इच्छानिरोध, ध्यान, स्वाध्याय एवं तपश्चरण आदि के माध्यम से
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