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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
[७५१ उन दोनों साधुनों ने कहा--"महाकवे ! इस दही में थोड़ा सा अलता का रंग डाल दीजिये।"
इधर धनपाल ने दही में किंचित्मात्र रंग डाला और उधर तत्काल ही दही के वर्ण के ही अनेक जीव जो अब तक अदृष्ट थे, दृष्टिगोचर हो दधिपात्र में इधरउधर चलने लगे।
दधिपात्र में इस प्रकार अगणित जीवों को इधर-उधर चलते और किलबिलाते देख जैन धर्म के सम्बन्ध में कवि धनपाल के अन्तर्मन में जो भ्रान्तियां थीं वे तत्काल प्रणष्ट हो गई, उसके मन और मस्तिष्क पर छाया हुमा मिथ्यात्व का कोहरा तत्क्षण समाप्त हो गया। उसने मन ही मन सोचा-"अहो! जैन दर्शन में सूक्ष्म से सूक्ष्म तत्त्व को वस्तुतः यथातथ्य रूपेरण गहन दष्टि से सोचा, देखा और बताया गया है । वस्तुत: जैन दर्शन संसार के प्राणिमात्र के प्रति दया अनुकम्पा की भावनाओं से ओतप्रोत, विश्वबन्धुत्व का प्रतीक और संसार के सभी जीवों के लिये सभी भांति कल्याणकारी है।" उसने अनुभव किया कि उसके अन्तर्मन में अलौकिक पालोक की एक दिव्य किरण प्रकट हुई है।
महाकवि धनपाल ने अंजलिबद्ध हो सादर मस्तक झुकाते हुए विनम्र स्वर में उन दोनों साधुनों से पूछा :-"महात्मन् ! आपका आगमन कहां से हमा है, आपके गुरु कौन हैं और आप यहां धारा नगरी में किस स्थान पर ठहरे हुए हैं ?"
एक साधु ने धनपाल के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा-"महाकविन् ! हम यहां गुर्जरभूमि से पाये हैं । महेन्द्रसूरि के सुयोग्य शिष्य शोभनाचार्य हमारे गुरु हैं
और इस नगर में आदिनाथ भगवान् के मन्दिर के पास एक उपाश्रय में हम सब ठहरे हुए हैं।" तदनन्तर वे दोनों साधु महाकवि धनपाल के भवन से निकलकर जिस दिशा से आये थे, उसी दिशा की ओर लौट गये।
विचारमग्न धनपाल ने तत्काल स्नान किया, शुद्ध वस्त्र धारण किये और बिना भोजन किये ही वह उपाश्रय की ओर प्रस्थित हुा । धनपाल ने ज्यों ही उपाश्रय में प्रवेश किया कि शोभनाचार्य की दृष्टि उन पर पड़ी। अपने बड़े भाई के प्रति सम्मान प्रकट करते हुए वे धनपाल के सम्मुख गये । धनपाल के अन्तहद में भ्रातृस्नेह उद्वेलित हो उमड़ पड़ा। उसने तीव्र गति से आगे बढ़कर अपने लघु सहोदर शोभनाचार्य को अपने बाहुपाश में प्राबद्ध कर अपने वक्षस्थल से लगा लिया।
___शोभनाचार्य ने अपने बड़े भाई के सम्मान की दृष्टि से अपने पास ही पर्व आसन पर बैठने का अनुरोध किया किन्तु धनपाल उनके समक्ष धरती पर ही बैठ गया और बोला-"बन्यो ! मापने संसार के महान् दर्शन-जैन दर्शन को आश्रय ले श्रमणधर्म अंगीकार किया है। आप मेरे ही नहीं सब के पूज्य हैं। मैंने प्रज्ञान और अमर्श के वशीभूत हो राजा भोज को निवेदन कर इस महान् धर्म के धर्मगुरुषों
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