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________________ ७५० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३ सम्पन्न करने की आज्ञा प्रदान कर दी । कतिपय गीतार्थ एवं सेवा परायण मुनियों के साथ उपाध्याय श्री शोभन ने श्ररणहिल्लपुर पत्तन से धारा नगरी की ओर विहार किया । विहार क्रम से स्थान-स्थान पर भव्य उपासकों को धर्मपथ पर श्रासीन एवं दृढ़ करते हुए उपाध्याय श्री शोभन अपने सन्तसमूह के साथ कतिपय दिनों के पश्चात् धारा नगरी पहुंचे और अपनी संतमंडली सहित वे वहां एक उपासनाभवनउपाश्रय में ठहरे । मधुकरी का समय उपस्थित होने पर शोभन गुरु ने अपने दो साधुनों को भिक्षा की गवेषणार्थं प्रपने ज्येष्ठ भ्राता धनपाल के घर पहुंच कर उन्हें धर्मलाभ दिया । उस समय महाकवि धनपाल अपने शरीर में तैलमर्दन के अनन्तर स्नानार्थ समुद्यत था । उसने साधुयों का प्रभिवादन करते हुए अपनी धर्मपत्नी से कहा - "इन प्रतिथियों को कुछ न कुछ भोजन- पेय प्रादि अवश्य ही देना चाहिये । क्योंकि गृहस्थ के घर से अभ्यर्थियों का बिना कुछ लिये ही रिक्तहस्त लौट जाना उस सद्गृहस्थ के लिये पापकारक होता है ।" धनपाल की गृहिणी ने कुछ पक्वान्न उन मुनियों को दिया और उन्हें दही देने के लिए दधिपात्र हाथ में लिया। मुनियों ने प्रश्न किया कि यह दही कितने दिन का है ? इस प्रश्न के सुनते ही धनपाल प्रावेशपूर्ण स्वर में बोला - "यह दही तीन दिन का है । कहिये, क्या इसमें भी जीन उत्पन्न हो गये हैं । ऐसा प्रतीत होता है, प्राप लोग नये-नये ही दयाव्रतधारी बने हैं । लेना हो तो लीजिये, अन्यथा शीघ्र ही यहां से अन्यत्र चले जाइये ।" एक साधु ने बड़े ही शांत एवं मृदु स्वर में कहा - "विद्वन् ! जैन श्रमणों के लिए जो मधुकरी के सम्बन्ध में प्राचार-संहिता बनी हुई है, उसकी अनुपालना में इस प्रकार की जानकारी करना हमारा अनिवार्य कर्त्तव्य रखा गया है। पूरी जानकारी कर लेने के पश्चात् जब हमें विश्वास हो जाय कि भिक्षा में गृहस्थ द्वारा दी उ.ने वाली वस्तु पूर्णतः दोषरहित है तभी हम उसे ग्रहण करते हैं, अन्यथा नहीं । बस इतनी सी बात पर श्राप कुपित क्यों हो रहे हैं ? प्राक्रोश वस्तुतः प्रनिष्टकर और प्रियवचन सदा सब के लिए श्र ेयस्कर होते हैं। दो दिनों के पश्चात् दही प्रादि गोरस में जीवों की उत्पत्ति हो जाती है । यह ज्ञानियों का कथन है ।" महाकवि धनपाल ने प्राश्चर्यपूर्ण मुद्रा में कहा - "यह नई बात तो मैंने अपने जीवन में पहली बार प्रापके मुख से ही सुनी है। तो आप इस दही में उन जीवों को दिखाइये कि दही में इस प्रकार के जीव होते हैं, जिससे कि हमें भी प्रत्यक्ष दर्शन से प्रापकी इस बात की सत्यता पर विश्वास हो जाय ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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