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कतिपय अज्ञात तथ्य ]
- [ २३ मठाधीशों, चैत्याधीशों ने मन्दिरों, चैत्यों और मठों के नाम पर भेंट, द्रव्यदान, भूमिदान, ग्रामदान आदि ग्रहण करने प्रारम्भ कर दिये। मठों, चैत्यों, बस्तियों और मुनि आवासों के नवोदित आधिपत्य व्यवस्था में समस्त श्रमण श्रमरणी वर्ग के साधु साध्वियों पर उन मठाधीशों चैत्याधिपतियों का पूर्णरूपेण स्वामित्व अथवा आधिपत्य माना जाता था क्योंकि उन चैत्य मठादि में रहने वाले सभी साधु साध्वियों को अपने-अपने अधीश आचार्यों की कृपा पर ही निर्भर रहना पड़ता था। उन साधु साध्वियों का अपने-अपने प्राचार्यों के प्रति पूर्णरूपेण स्वामिभक्त रहना अनिवार्य था। भेंट एवं दान में प्राप्त धन की वृद्धि के साथ-साथ उन आचार्यों का वैभव बढ़ा और वैभव की अभिवृद्धि के साथ भक्त समाज पर उनका वर्चस्व भी उत्तरोत्तर बढ़ता गया। लोक सम्पर्क और राज सम्पर्क बढाकर उन्होंने प्रजाजनों के सभी वर्गों और राजा महाराजाओं पर भी अपना प्रभाव जमा लिया। पूज्यपाद् जिनसेन, गुणभद्र, सोमदेव, अजितसेन, सुदत्त, मुनिचन्द्र आदि प्रमुख प्राचार्यों का अपने-अपने समय के राजाओं एवं राजकुमारों पर गहरा प्रभाव था। मध्ययुग के वे श्रमण एवं प्राचार्य केवल धर्म अथवा पारलौकिक विषयों के परामर्शदाता ही नहीं, अपितु गृहस्थों के इह लौकिक कार्य कलापों के परामर्शदाता भी थे। वे जैन प्राचार्य राजनीति में सक्रिय एवं उल्लेखनीय अभिरुचि लेते थे। मध्ययुग के जैनाचार्यों और श्रमरणों के इस प्रकार के कार्य कलापों, व लौकिक प्रपंचों से प्रलिप्त चर्याओं से स्पष्ट रूपेण स्वतः ही यह सिद्ध है कि उनका पुरातन पवित्र मूल श्रमण परम्परा से सम्बन्ध टूट गया था। इस बात से भी किसी को कोई मतभेद नहीं कि मध्ययुग की उन श्रमण परम्पराओं के श्रमरणों और प्राचार्यों ने पुरातन पावन श्रमण धर्म की सभी मूल मर्यादाओं का खुले रूप में उल्लंघन किया, मर्यादाओं को तोड़ दिया।"
इन सब उपरिलिखित विक्रम की ग्यारहवीं बारहवीं शताब्दी से लेकर वर्तमान काल तक के उद्धरणों से यह भलीभांति सिद्ध होता है कि वीर निर्वाण सं० १००० एक हजार के पश्चाद्वर्ती काल में भ० महावीर के धर्म संघ में अनेक ऐसे श्रमण संघों का उद्भव, अभ्युत्थान एवं उत्कर्ष हुआ जिन्होंने जैन धर्म के मूल स्वरूप को, श्रमण धर्म की मर्यादाओं को, तोड़कर न केवल श्रमण धर्म के ही अपितु जैन धर्म के मूल स्वरूप को भी आमूल-चूल परिवत्तित कर उसका एक विकृत स्वरूप लोक के समक्ष प्रस्तुत किया । उन नई श्रमण परम्पराओं के प्राबल्य के परिणामस्वरूप मूल शुद्ध श्रमण परम्परा का इतना अधिक दुखद ह्रास हुआ कि वह मूल परम्परा अन्तर्ग्रवाहिनी सरिता की तरह क्षीण और गौरणरूप में ही अवशिष्ट रह गई।
जिन मध्ययुगीन श्रमण परम्पराओं ने जैन धर्म के विशुद्ध आध्यात्मिक स्वरूप में भौतिकता का, बाहयाडम्बरपूर्ण अनुष्ठानों एवं कर्म काण्डों का पुट देकर जैन धर्म के मूल स्वरूप में परिवर्तन किया, शास्त्र सम्मत विशुद्ध मूल श्रमणाचार में पौरोहित्य, चल अचल सम्पत्ति संग्रह, भेंट ग्रहण, भूदान, द्रव्यदान, ग्रामदान
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