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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
गुरुओं एवं धर्माचार्यों ने जैन धर्म के उन पवित्र आध्यात्मिक मूल सिद्धान्तों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया, जो आत्मशुद्धि के अमोघ साधन थे अथवा हैं । जैनधर्म संघ में उन मध्ययुगीन धर्माचार्यों द्वारा किये गये द्रव्य पूजा के भौतिक अनुष्ठानों के प्रचलन से जैनधर्म के प्राणभूत अहिंसा के मूल सिद्धान्त पर वस्तुतः कुठाराघात हुआ। द्रव्य पूजा करते समय भौतिक अनुष्ठानों के माध्यम से जो भक्तगण पूजा के प्रयोग में लाये जाने वाले पानो और पुष्पादि में विद्यमान अगणित सूक्ष्म जीवों की हिंसा करते हैं जो दृष्टिगोचर नहीं होते, द्रव्य पूजा में किये जाने वाले होम से, अगरबत्ती धूप आदि सुगन्धित द्रव्यों के प्रज्वलन से और प्रज्वलित प्रदीप को जिनमूर्ति के समक्ष घुमाने से अनुष्ठान करने वाला भक्त वायु अग्नि प्रादि जीव निकायों के असंख्य सूक्ष्म जीवों की हिंसा करता है । जैनों में मूर्ति पूजा का प्रादुर्भाव ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में हुअा और मध्ययुग में पूजा के नियमों और अनुष्ठानों को विस्तृत अथवा विशद रूप दिया गया । समन्तभद्र (विक्रम की सातवीं आठवीं शताब्दी) ही सम्भवतः पहले प्राचार्य थे, जिन्होंने मतिपजा को शिक्षाक्त में सम्मिलित कर इसे थाद्ध वर्ग (श्रावक श्राविका वर्ग) का धार्मिक कर्तव्य निर्धारित किया। सोमदेव (विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी) ने मूर्ति पूजा को सामायिक शिक्षा व्रत में स्थान दिया।"
प्राचीन काल में वीर निर्वाण सम्वत् १००० तक जैन श्रमणों का श्रमण जीवन उच्च आदर्श से अोतप्रोत, कठोर मर्यादानों से पूर्ण रूपेण मर्यादित, सर्वज्ञ प्रणीत जिनागमों में प्रतिपादित श्रमण धर्म के अनुरूप था। चतुर्विध संघ द्वारा सर्वमान्य महान् जैनधर्म का स्वरूप भी पूर्वधरकाल में जैनागमानुसार ही था। किन्तु मध्ययुग में जैन धर्म के स्वरूप में परिवर्तन और श्रमणों के श्रमणाचार में शैथिल्य ग्रादि दोषों का प्रादुर्भाव एवं प्राबल्य किन कारणों से हा इस पर प्रकाश डालते हुए इन्हीं विद्वान् लेखक ने लिखा है :---
"मूलतः जैनागमों में श्रमण श्रमणी वर्ग के लिये अप्रतिहत विहार व वर्षावास को छोड़ शेष ऋतुओं में अनियत निवास का विधान है। मध्य युग में परीषहभीरु श्रमरण श्रमणी वर्ग ने अप्रतिहत विहार अथवा अनियत निवास की मल श्रमण चर्या का परित्याग कर एक ही स्थान पर नियत निवास को अंगीकार कर लिया। इस परिवर्तन के साथ ही उन श्रमगों ने अपने एक ही स्थान पर स्थायी नियत निवास के लिए अपने भक्तों को चैत्य, मठ, श्रमरणवसतियां, श्रमणी वसतियां आदि बनाने में विपुल पुण्यलाभ का उपदेश देकर इनका निर्माण करवाना प्रारम्भ किया। नगर-नगर ग्राम ग्राम में मठ चैत्यादि के निर्माण करवाये गए । उन चैत्यों, मठों और वसतियों में श्रमण श्रमरिणयों ने नियत निवास प्रारम्भ कर दिया। शनैः शनैः उन चैत्यों मठों, मुनि वसतियों और श्रमणी वसतियों आदि का प्रबन्ध उन श्रमण समूहों के प्राचार्यों व भट्टारकों आदि ने अपने हाथ में लिया और श्रमण श्रमणियों के लिये सभी प्रकार के समुचित प्रबन्ध एवं उन मठादि की भली भांति व्यवस्था हेतु उन
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