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कतिपय अज्ञात तथ्य ]
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He included it among the Shiksha Vratas or Educative vows and gave it a place of some importance in his rules for Jain house holders. 9
From this time the Jaina teachers further developed their system of worship. Som Deo included it among samayik Shiksha Vrata or the customary worship and devoted a full chapter to the Jaina system of worship."?
ईसा की छठी शताब्दी के उत्तरवर्ती काल में जैन श्रमरणों एवं श्रमण संघों में जैन धर्म के मूल सिद्धान्तों के विपरीत शुद्ध श्रमणाचार के प्रतिकूल आचरण का प्राचुर्य क्यों हो गया ? शिथिलाचार, द्रव्य संग्रह, मन्दिरों के पौरोहित्य ग्रहण आदि की वृत्ति क्यों और किस प्रकार उत्पन्न हो गई ? उनका श्रमण जीवन पूर्व काल के श्रमणों के एकान्तप्रिय, परिभ्रमणशील एवं आध्यात्मिक श्रमण जीवन से प्रतिकूल दिशागामी क्यों बन गया ? इन सब प्रश्नों पर क्षीर नीर विवेक दृष्टि से गहन अध्ययन के पश्चात् विद्वान ऐतिहासज्ञ श्री रामभूषण प्रसादसिंह ने निष्कर्ष के रूप में जो उपरि उद्धृत विचार व्यक्त किये हैं वे सार रूप में इस प्रकार हैं :
"जिन कारणों से मध्ययुग के श्रमणों ने मन्दिरों के पौरोहित्य को ग्रहण किया, उन कारणों को ज्ञात करना कोई कठिन कार्य नहीं है। जैन श्रमणों के मन मस्तिष्क में बढ़ती हुई द्रव्य संग्रह की लालसा, संघ में सत्ता सम्पन्न प्रमुख पद प्राप्त करने की अभिलाषा और उनकी उत्तरोतर शिथिलाचार की ओर उन्मुख हुई वृत्ति ने उन्हें श्रमण धर्म से भ्रष्ट करने वाले पौरोहित्य के कार्य को पुरोहितों से छीनकर अपने अधिकार में लेने के लिये विवश किया। इस प्रकार अपने हाथ में लिये हए पौरोहित्य कार्य ने उन श्रमणों को उस अपार सम्पत्ति और वैभव का स्वामी बना दिया जो श्रद्धालु भक्तों द्वारा जिन मन्दिरों को भेंट की गई बहुमूल्य सम्पत्ति के रूप में उन्हें प्राप्त होती रहती थी।
जैन साधुओं की इस प्रकार की प्रभुसत्ता प्राप्त करने की लालसा के साथ-साथ शिथिलाचारपरक अर्थ लोलुप वृत्ति ने उन्हें भगवान महावीर के आध्यात्मिक सिद्धान्तों से कितने कोसों दूर फेंक दिया, यह प्रत्येक विज्ञ व्यक्ति को सहज ही विदित हो जाता है । भगवान् महावीर ने धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करते समय हिन्दू समाज में एकाधिपत्य के रूप में छाई हई पौरोहित्य वृत्ति का घोर विरोध करने के साथ-साथ भौतिक अनुष्ठानों के स्थान पर प्रात्म शुद्धि पर बल दिया था । जिन भौतिक अनुष्ठानों का भगवान महावीर ने तीव्र विरोध कर निराकरण किया था, उन भौतिक अनुष्ठानों का जैनधर्म संघ में प्रचलन करते समय मध्य युग के जैनधर्म
1. S.P. Brahmachari, Grihastha Dharma, V. 119, page 144 3. Jainism in Early Medieval Karnatakit, Page 23 published by Motilal Banarasi Dass,
Delbi in the first edition 1975.
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