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म० महावीर के ४८वें पट्टधर उमरण ऋषि और ४εवें जयसेरग के समय के प्रभावक प्राचार्य श्री महेन्द्र सूरि
अवन्ति प्रदेश की राजधानी धारानगरी में जिस समय राजा भोज राज्य कर रहे थे उस समय महेन्द्रसूरि नामक आचार्य धारानगरी में आये । श्रध्यात्मिक आनन्द प्रदान करने वाले उपदेशों को सुनने के लिए धारानगरी के सभी वर्गों के लोग उमड़ पड़े। जिन-जिन लोगों के मन में जो-जो भी शंकाएं थीं उन्होंने अपनी शंका का महेन्द्रसूरि से समाधान प्राप्त किया ।
एक दिन सर्वदेव नाम का एक ब्राह्मण श्राचार्य श्री महेन्द्रसूरि के उपाश्रय में श्राया । तीन दिन और तीन रात तक वह उस उपाश्रय में महेन्द्रसूरि के प्रसन के समक्ष बैठा रहा। चौथे दिन महेन्द्रसूरि ने उस सर्वदेव ब्राह्मरण से पूछा :- "हे द्विजोत्तम ! क्या आपको कोई प्रश्न पूछना है ? यदि तुम्हारे मन में धर्म के विषय में किसी प्रकार की शंका हो तो हमारे समक्ष रक्खो ।”
सर्वदेव ने कहा :- "महात्मन् ! केवल महात्मानों के दर्शन से ही महान् पुण्य का अर्जन हो जाता है । तथापि एक कार्य के लिए मैं आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूं। क्योंकि हम गृहस्थ लोग तो वस्तुतः अभ्यर्थी हैं अर्थात् अपने लौकिक श्रम्युदय के इच्छुक हैं अथवा भौतिक प्राकांक्षां से लिप्त हैं । अतः मैं एकान्त में ही श्रापसे कुछ निवेदन करना चाहता हूं।"
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महेन्द्रसूरि उसके साथ एक मोर एकान्त स्थान में गये । तब ब्राह्मरण सर्वदेव ने कहा :- " हे ज्ञानसिन्धो ! मेरे पिता का नाम देवर्षि था । वे मालवपति के बहुमान्य विद्वान् थे । मालवराज सदा एक लाख स्वर्ण मुद्राओं का कतिपय दिनों तक दान करते रहे । मेरा विश्वास है कि मेरे पिता द्वारा वह धन हमारे ही घर में कहीं गाड़ा गया था । आप दिव्य दृष्टि सम्पन्न । मेरे घर पर चलकर यदि आप हमारा वह छिपा हुआ धन बता देंगे तो इस ब्राह्मण का और साथ ही इसके परिवार का बड़े प्रानन्द के साथ दान पुण्यादि करते हुए जीवन व्यतीत हो जायगा । हम सब आपके सदा-सदा कृतज्ञ रहेंगे ।
निमितज्ञ महेन्द्र सूरि ने देखा कि उस ब्राह्मरण के माध्यम से उन्हें एक महान् प्रभावक शिष्य और श्रावक का लाभ होने वाला है अतः उन्होंने प्रश्न किया :- "द्विजवर ! यदि तुम्हें छिपा हुआ धन मिल गया तो तुम हमें क्या दोगे ?
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