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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ ब्राह्मण ने कहा :--"उसमें से प्राधा मैं आपको दूंगा।"
महेन्द्र सूरि ने कहा :-"नहीं, तुम्हारे पास जो कुछ भी अच्छा होगा उसमें से आधा मैं लूगा।"
ब्राह्मण सर्वदेव ने साक्षीपूर्वक इस शर्त को स्वीकार कर लिया।
महेन्द्रसूरि को उपाश्रय से सर्वदेव अपने घर ले आया। उसने अपने बड़े पुत्र धनपाल और छोटे पुत्र शोभन को महेन्द्र सूरि के साथ हुई बात का सारा विवरण सुनाया। एक दिन शुभ मुहूर्त में ब्राह्मण महेन्द्रसूरि को फिर अपने घर ले गया। वहां सूरि ने अपने ज्ञानबल से देखकर सर्वदेव को वह स्थान बता दिया जहां कि धन गड़ा पड़ा था । ब्राह्मण ने उस स्थान को खोदा तो चालीस लाख स्वर्ण मुद्राएं वहां से निकलीं। श्री महेन्द्रसूरि तो बिलकुल निस्पृह थे। अतः उसी समय बिना कुछ लिये वहां से लौट आये । एक वर्ष तक सर्वदेव प्रति दिन महेन्द्र सूरि की सेवा में उपस्थित होकर प्राधा धन ग्रहण करने की उनसे प्रार्थना करता रहा । महेन्द्र सूरि सदा इसे टालते रहे । एक दिन सर्वदेव ने प्राचार्य महेन्द्र सूरि की सेवा में उपस्थित होकर निवेदन किया:.-"महर्षिन् ! आज तो मैं आपको आपका देय दिये बिना अपने घर नहीं लौटूंगा।"
महेन्द्र सरि ने कहा :-"द्विजोत्तम! तुम्हें भली भांति स्मरण होगा कि मैंने क्या कहा था ? मैंने यही कहा था कि मुझे जो अच्छा लगेगा उसमें से प्राधा
ब्राह्मण ने उत्तर दिया :-"हां, तो महाराज, वह लीजिये न ।" ।
महेन्द्र सूरि ने कहा :--"तुम्हारे घर में तुम्हारे पास पुत्र युगल की एक जोड़ी है । यदि तुम अपनी प्रतिज्ञा को पूरी करना चाहते हो तो अपने धनपाल और शोभन इन दो पुत्रों में से एक मुझे दे दो । अन्यथा आनन्द से घर जानो।"
यह सुनते ही सर्वदेव किंकर्त्तव्य विमूढ़ हो गया। बड़े कष्ट से उसके मुंह से यह वाक्य निकला :-"दूंगा महाराज!"
तदनन्तर चिन्तामग्न वह ब्राह्मण अपने घर की ओर लौट गया और एक कक्ष में पड़ी खाट पर लेट गया। जब उसके बड़े पुत्र धनपाल ने प्रासाद से लोटकर अपने पिता को इस प्रकार चिन्तामग्न देखा तो पूछा :-"पूज्यपाद ! आपके इस अकिंचन पुत्र की विद्यमानता में प्रापको किस बात का शोक है ? मैं तो आपकी प्रत्येक प्राज्ञा शिरोधार्य करता पाया हूं। अतः आप अपनी चिन्ता का कारण बताइये ।"
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