________________
७४ ]
[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग १ भोज (द्वितीय) का भाई और क्रमश उत्तराधिकारी था। विक्रम सम्वत् ६५५ का एक दानपत्र भी उपलब्ध होता है।'
यह विनायकपाल अपने साम्राज्य की राजधानी कन्नोज में रहता था।
विक्रम की दशवीं शताब्दी में दिगम्बर परम्परा के इन्द्रनन्दी नामक एक महान् मन्त्रवादी प्राचार्य ने "ज्वालामालिनी" नामक एक मन्त्रशास्त्र की रचना की । इनके गुरु का नाम बप्पनन्दी पौर प्रगुरु का नाम वासव नन्दी था । इन्द्रनन्दी ने इस ग्रन्थ की रचना का प्रारम्भ से विवरण प्रस्तुत करते हुए उपक्रम के पश्चात् लिखा है कि हेलाचार्य ने ज्वालामालिनी देवी के मादेश से पूर्व काल में "ज्वालिनीमत" नामक ग्रन्य की रचना की। गुरु परिपाटी से यह 'मन्त्रराज गुरणनन्दी' नामक मुनि को प्राप्त हुमा। गुरणनन्दी से गूढार्थ एवं रहस्य सहित इन ग्रन्थ का ज्ञान इन्द्रनन्दी ने प्राप्त किया। वह ग्रन्थ वस्तुतः बड़ा क्लिष्ट था। इसलिए इन्द्रनन्दी ने विश्व को माश्चर्य में डाल देने वाले इस जनहितकारी ग्रन्थ की नवीन रूप से सुबोध्य शैली में रचना प्रारम्भ की।
राष्ट्रकूट वंशीय राजामों की राजधानी मान्यखेट (मलखेड़) के कटक में इन्द्रनन्दी ने राष्ट्रकूट राजा श्रीकृष्ण के शासनकाल में, शक सं० ८६१ में इस ज्वालामालिनी (कल्प) नामक ग्रन्थ की रचना सम्पन्न की।'
"ज्वालामालिनी" नामक इस अन्य में कुल १० प्रधिकार हैं। इन दश प्रषिकारों में मन्त्र शास्त्र के सभी प्रमुख अंगों पर प्रकाश डालते हुए इन्द्रनन्दी ने इस मन्त्र की साधना की विधि का भी निरूपण किया है।
मध्यकाल में यह अन्य बड़ा ही लोकप्रिय रहा । राज्याश्रय प्राप्त कर जैन धर्म के अभ्युत्थान के लिए और जनमत को अधिकाधिक संख्या में जिनशासन की मोर माकर्षित करने के लिए इस मन्त्रशास्त्र का खूब उपयोग किया गया। इस दिशा में अनेक माचार्यों को भाशातीत सफलता भी प्राप्त हुई।
' (क) इण्डियन एण्टीक्वेरी, जिल्द संख्या १५, पृष्ठ १४०-१४१
(ख) राजपूताना का इतिहास जिल्द १, पृष्ठ १६३ ' प्रष्टेशतस्यकषष्ठि प्रमाणशकवत्सरेष्वतीतेषु,
श्री मान्यखेट कटके पर्वण्यक्षयतृतीयायाम् । शतदलसहित चतुःशतपरिमाणमन्परचनायुक्तम्, श्रीकृष्णराज राज्ये समाप्तमेतन्मत्रं देव्याः ।। -ज्वालामालिनिकल्प प्रशस्ति
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org