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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
[७४३ विजयसिंह सूरि ___ नागेन्द्र गच्छ के प्राचार्य समुद्र सूरि के शिष्य विजयसिंह सूरि ने वीर नि० की पन्द्रहवीं शताब्दी (विक्रम सं० ६७५) में ८९११ गाथानों के प्राकृत भाषा के 'भूवन सुन्दरी' नामक एक कथाग्रन्थ की रचना की। कथा साहित्य में यह ग्रन्थ बड़ा ही शिक्षाप्रद और रोचक है । यह ग्रन्थ आज उपलब्ध है । इससे अधिक इनका परिचय उपलब्ध नहीं होता।
प्राचार्य हरिषेण
वीर निर्वाण की पन्द्रहवीं शताब्दी में प्राचार्य हरिषेण नामक दिगम्बर परम्परा के एक विद्वान् ग्रन्थकार हुए हैं। इन्होंने वर्द्धमानपुर में विक्रम सम्वत् ९८८ तदनुसार शक सम्वत् ८५३ में पाराधना कथा कोष नामक १२५०० श्लोक प्रमाण एक कथाग्रन्थ की रचना की।
जैन कथा साहित्य का यह एक बड़ा महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसमें कुल मिलाकर १५७ कथाएं संस्कृत पद्यों में लिपिबद्ध की गई हैं । ये हरिषेण पुन्नाट संघ के प्राचार्य मौनि भट्टारक के प्रप्रशिष्य थे। इनके गुरु का नाम भरतसेन था। इन्होंने अपने गुरु भरतसेन के लिये इस ग्रन्य की प्रशस्ति में लिखा है कि वे छन्द शास्त्रज्ञ, कवि, वैयाकरण, अनेक शास्त्रों में निष्णात और एक विशिष्ट तत्ववेत्ता थे।
कथा कोष की कथामों को पढ़ने और उन पर विचार करने से ऐसा प्रतीत होता है कि इन पर और इनकी इस कृति पर यापनीय प्राचार्य शिवार्य की 'पाराधना' का पूर्ण प्रभाव रहा है। अपने अन्य की प्रशस्ति के पाठवें श्लोक में 'पाराधनाद्ध त' वाक्य से हरिषेण ने स्वयं ने यह स्वीकार किया है कि इस ग्रन्थ की रचना करते समय शिवार्य की 'पाराधना' उनके समक्ष प्रादर्श के रूप में रही है।
कथाकोष की प्रशस्ति में एक ऐतिहासिक महत्व का श्लोक दिया हुमा है जो उस समय के प्रतिहार राजामों के राज्य विस्तार पर प्रकाश डालता है। वह श्लोक इस प्रकार है
सम्वत्सरे चतुर्विशे वर्तमाने खराभिषे,
विनयादिक पालस्य राज्ये शक्रोपमानके ।। १३ ।। इससे यह प्रकट होता है कि उस समय (विक्रम की दसवीं शताब्दी के मन्तिम चरण में) प्रतिहारों का राज्य केवल राजपूताने के अधिकांश भागों में नहीं, बल्कि गुजरात, काठियावाड़, मध्य भारत और उत्तर में सतलज से लेकर विहार तक फैला हुमा था। यह विनायकपाल महाराजाधिराज महेन्द्रपाल का पुत्र और महीपाल तथा
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