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[मैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
गषि
विक्रम की १० वीं शताब्दी में गर्षि नामक एक विद्वान् प्राचार्य हुए हैं। उन्होंने पासक केवली और कर्म विपाक नामक ग्रन्थों की रचना की। ये विक्रम की १० वीं शताब्दी के प्रथम दशक के विद्वान थे। आप निवृत्ति कुल के प्राचार्य थे।'
"पज्जीवालीय गच्छ पट्टावली" के उल्लेखानुसार गर्गर्षि-गर्गाचार्य वि० सं० ९१२ में स्वर्गस्थ हुए। इनके गुरु भ्राता दुर्ग स्वामी का वि० सं०६०२ में स्वर्गवास हुमा ।
कवि चतुर्मुख विक्रम की पाठवीं शताब्दी में चतुर्मुख नाम के एक समर्थ कवि हुए हैं। उन्होंने अपभ्रंश भाषा में 'रिट्ठ नेमि चरिउ' (हरिवंश पुराण), 'पउम चरिउ' (पद्म पुराण) और 'पंचमी चरिउ' की रचनाएं की। किन्तु अपभ्रंश भाषा के चतुर्मुख द्वारा रचित इन तीनों महत्वपूर्ण ग्रन्थों में से आज एक भी ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। विद्वानों का ऐसा अनुमान है कि महाकवि स्वयम्भू इन्हीं के पुत्र भोर महाकवि त्रिभुवन स्वयम्भू इनके पौत्र थे। विद्वानों का यह भी अभिमत है कि कवि चतुर्मुख की इनके पुत्र स्वयम्भू ने इन तीनों ग्रन्थों की रचना में सहायता की थी।
कवि स्वयम्भू और त्रिभुवन स्वयम्भू नवमीं शताब्दी के इन दोनों कवियों ने जो कि पिता पुत्र थे पउम चरिउ, रिट्टनेमि चरिउ मोर स्वयम्भू छन्द इन तीन ग्रन्थों की रचना की। पउम चरिउ महाकवि विमल सूरि के पउम चरिउ के माधार पर बनाया गया हो ऐसा प्रतीत होता है । क्योंकि स्वयम्भू ने अपने इस ग्रन्थ में रामकथा को वही रूप दिया है जो कि विमल सूरि ने अपने पउम चरिउ में दिया है । महाकवि विमलसूरि ने अपने अन्य पउम चरिउ की रचना इसकी प्रशस्ति के अनुसार वीर निर्वाण सम्वत् ५३० में की। विमल सूरि का पउम चरिउ वस्तुतःजैन साहित्य की राम कथामों का प्रारम्भ से प्रमुख स्रोत रहा है। कवि स्वयम्भ और त्रिभुवन स्वयम्भू की तीनों ही रचनाएं वस्तुतः उच्च कोटि की रचनाएं होने के कारण जैन साहित्य के प्रमोल ग्रन्थरल समझे जाते हैं।
कवि स्वयम्भू का स्वयम्भू छन्द नामक उत्कृष्ट कोटि का छन्दोग्रन्थ है। 'स्वयम्भू छंद' के अनेक छन्दों के लक्षण और उदाहरण श्री हेमचन्द्राचार्य के छन्दानुशासन में पाये जाते हैं।
'पट्टावली पराग संग्रह, पं. कल्याण विजयजी महाराज, पृष्ठ २५० २ वही-पृष्ठ २४६
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