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________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ७४१ ___ कहीं बड़गच्छ की उत्पत्ति उद्योतन सूरि से बताई गई है तो कहीं सर्वदेव सूरि से । इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। वस्तुतः उद्योतन सूरि बड़गच्छ के संस्थापक हैं और उनके शिष्य सर्वदेव सूरि उसके प्रथम प्राचार्य । दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि उद्योतन सूरि ने बड़गच्छ की संस्थापना की और सर्वदेव सूरि से बड़गच्छ की परम्परा प्रचलित हुई। .. इनके (सर्वदेव सूरि के) पश्चात् ३७वें पट्टधर देव सूरि हुए। देवसूरि के पश्चात् भगवान महावीर के ३८वें पट्टघर श्री सर्वदेव सूरि (द्वितीय) हुए। उन ३८वें पट्टधर द्वितीय सर्वदेव सूरि ने अपने प्राचार्य काल में पाठ सुयोग्य शिष्यों को पृथक साधु समूह देकर प्राचार्य पद प्रदान किये। इस प्रकार ३८वें पट्टधर के प्राचार्य काल में बड़गच्छ के पाठ प्राचार्य हो गये और यह एक बहुत बड़ा गच्छ बन गया। बड़गच्छ वस्तुतः वटवृक्ष की भांति चारों भोर प्रसत हो गया और इस सर्वतोमुखी अभिवृद्धि के परिणामस्वरूप यह बड़गच्छ प्रपने उत्कर्ष काल से ही वृहद् गच्छ के नाम से लोक में प्रसिद्ध हुग्रा। श्री सर्वदेव सूरि-द्वितीय-(३८वे पट्टधर) ने अपने जिन ८ प्रमुख शिष्यों को प्राचार्य पदों पर अधिष्ठित किया था, उनमें उनके एक शिष्य का नाम धनेश्वर था। ये घनेश्वर सूरि महान् प्रभावक प्राचार्य हुए। उन्होंने वहद् पौषधशालिक पट्टावली के उल्लेखानुसार ७०१ दिगम्बर साधुओं को अपनी परम्परा में दीक्षित कर अपने शिष्य बनाये। चैत्रपुर नगर में उन धनेश्वर सूरि ने वीर जिन की प्रतिष्ठा की। इस कारण धनेश्वर सूरि का विशाल शिष्य समूह और उनके उपासकों का वर्ग "चैत्र गच्छ” के नाम से विख्यात हुमा ।' यह चैत्र गच्छ 'बड़ गच्छ अथवा 'वृहद् पौषध शालिक गच्छ' की ही शाखा था। चैत्र गच्छ का अपर नाम चित्रवाल गच्छ भी प्रसिद्ध है। चित्रवाल गच्छ के प्राचार्य देवभद्रगणी की सहायता से बड़ गच्छ के ४२वें प्राचार्य (तपाविरुदधर) जगच्चन्द्र सूरि ने उस समय के साधुनों में व्याप्त शिथिलाचार को, कठोर नियमों का पालन एवं क्रियोद्वार कर, दूर किया। जगच्चन्द्र सूरि ने देवमद्र गरिण के पास उपसम्पदा ग्रहण की इस प्रकार के उल्लेख उपलब्ध होते हैं। - 'जेण य अट्ठायरिया, समयं सुतत्यंदायगा ठविया। तत्य धरणेसर सूरि, पभावगो वीर तित्यम्स ।। (११) खवणाणं सत्तसया-एगुचि प्रदिक्सिमा सहत्येण । चित्तपुरि जिण वीरो पइटिमो चित्तगच्छो य (१२) -वृहत्पौषष शालिक-पट्टावली २ पट्टावली समुच्चय, भाग १, पृष्ठ २७ पोर ५७ ३ पट्टावली पराग संग्रह, पं० कल्याण विजयजी, पृष्ठ १७४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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