________________
७४० ]
[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३
राणजी तपिया देखी ने 'तपा' विरुद दीघो । संवत् १२४५ तपा विरुद हूं। पेहला बड़गच्छा हुता, पर्छ तपा विरुद हूंयौ, तेह थी तपा कैहवारणा । तत्पट्टे, श्री देवचन्द्रसूरि (४५)
बड़गच्छ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जैन वांग्मय में जो उल्लेख उपलब्ध होता है, वह इस प्रकार है कि एक समय अर्बुदाचल की तीर्थयात्रा के पश्चात् उद्योतन सूरि आबू पहाड़ से नीचे उतर कर टेली नामक ग्राम के पास एक विशाल वट वृक्ष की छाया में विश्राम करने के लिये बैठे । उस समय चिन्तन करते-करते उनके ध्यान में यह बात आई कि यदि वे अपने किसी शिष्य को उस समय आचार्य पद प्रदान कर दें तो उसके पट्ट की वंश परम्परा की सुदीर्घकाल तक स्थायी वृद्धि के साथ-साथ जिन शासन की प्रभावना में भी अद्भुत अभिवृद्धि हो सकती है । उस समय चल रहा मुहूर्त उन्हें प्रतीव श्रेष्ठ प्रतीत हुआ और उन्होंने तत्काल उस सुविशाल वट वृक्ष की छाया में ही सर्वदेव सूरि आदि अपने आठ प्रमुख एवं विद्वान् शिष्यों को प्राचार्य पद प्रदान कर दिये । कतिपय विद्वानों का प्रभिमत है कि उद्योतन सूरि ने उस समय अपने एक ही शिष्य श्री सर्वदेव सूरि को प्राचार्य पद प्रदान किया, शेष सात शिष्यों को नहीं। ऐसा प्रतीत होता है कि सर्वदेव सूरि के प्रशिष्य सर्वदेव सूरि द्वितीय ने अपने आठ शिष्यों को प्राचार्य पद प्रदान किया था, जिनमें से एक धनेश्वर सूरि थे, इसो नाम साम्य के कारण सम्भवत: उद्योतन सूरि द्वारा सर्वदेव सूरि के साथ ७ शिष्यों को प्राचार्य पद दिये जाने की बात कही जाती हो ।
वृहद् गच्छ गुर्वावली ( बड़गच्छ गु० ) के उल्लेखानुसार उद्योतन सूरि ने वि० सं० ε६४ में सर्वदेव सूरि आदि को टेली ग्राम के पास के लोकड़िया नामक वट वृक्ष के नीचे प्राचार्य पद प्रदान किया । उस समय उन्होंने अपने बहुत से शिष्यों को प्राचार्य पद प्रदान करते समय प्रत्येक प्राचार्य को ३००-३०० साधुनों का समूह प्रदान किया ।" प्रारम्भ में लोग इस गच्छ को वट गच्छ के नाम से पुकारते थे किन्तु जब बड़गच्छ शाखा प्रशाखानों में फैले हुए विशाल वट वृक्ष के समान एक शक्तिशाली और विशाल गच्छ का रूप धारण करने लगा तथा इसमें गुणी साधुत्रों की उत्तरोत्तर अभिवृद्धि होने लगी तो सभी गच्छ इससे प्रभावित हो इसे वृहद् गच्छ के सम्मानास्पद नाम से सम्बोधित करने लगे । वृहद गच्छ के उत्तरोत्तर बढ़ते रहने का परिणाम यह हुआ कि चन्द्र कुल अपने सहजन्मा 'नागिल', 'निवृत्ति' और 'विद्याघर' इन तीनों कुलों पर छा गया और वे तीनों ही कुल इसके विस्तार के नीचे एक प्रकार से ढँक से गये ।
१
( क ) उज्जोयणो य सूरि, बड़गच्छो सव्व देव सूरि पहूं । सिरिदेव सूरि तत्तो, पुरणोवि सिरि सव्वदेव मुरगी (१०)
(ख) पट्टावली पराग संग्रह, पृ० २३२
Jain Education International
- वृहत् पौषधशालिक - पट्टावली
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org