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________________ बड़ गच्छ बड़ गच्छ पट्टावली के अनुसार भ० महावीर के ३५वें पट्टधर प्रा० सर्वदेव सूरि के गुरु उद्योतन सूरि से बड़ गच्छ की उत्पत्ति हुई। अंचल गच्छ पट्टावली में भी इन्हें भ० का ३५वां पट्टधर कहा है। उक्त पट्टावली में इस प्रकार का उल्लेख भी किया गया है कि इस परम्परा में सर्वदेव सूरि के पश्चात् हुए पाठवें प्राचार्य तथा इस पट्टावली के उल्लेखानुसार भगवान महावीर के ४४वें पट्टधर जगच्चन्द्र सूरि के समय तक यह गच्छ बड़ गच्छ के नाम से अभिहित किया जाता रहा। भगवान के ४४ वें पट्टधर जगच्चन्द्र सूरि ने जीवन पर्यन्त आचाम्ल व्रत करते रहने की प्रतिज्ञा की। घृत, दूध, दही, तेल, नमक, मिर्ची, मसाले आदि सब चीजों का प्राजीवन त्याग कर बिना नमक की पूर्णतः शुष्क रुक्ष रोटी तथा उबला हुआ अथवा भुना.हुमा अन्न ही ग्रहण करने का प्रत्याख्यान (प्रतिज्ञा) अथवा अभिग्रह अंगीकार किया। आजीवन प्राचाम्ल व्रत के अतिरिक्त वे उपवास, बेला, तेला आदि घोर तपश्चरण भी करते रहते थे। बारह वर्ष पर्यन्त इस प्रकार के घोर तपश्चरण के साथ अप्रतिहत विहार के माध्यम से विभिन्न क्षेत्रों के लोगों को धर्म मार्ग पर स्थिर करते हुए वे जगच्चन्द्र सूरि आघाड़ (प्राहड़ अथवा आघाटक) नगर में पाये । आधाड़ उन दिनों (विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में) मेवाड़ राज्य का पट्ट नगर-राजधानी था। मेवाड़ के महाराणा ने उनके घोर तपश्चरण की यशोगाथाएं सुनकर उनके तप एवं त्याग की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करते हुए उन्हें तपा के विरुद से विभूषित किया। इस विरुद से पहले इस गच्छ के साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका वर्ग बड़ गच्छीया नाम से अभिहित किये जाते थे किन्तु इस तपा विरुद से विभूषित किये जाने पर इनकी तपा के नाम से लोक में ख्याति हुई और बड़ गच्छ वि० सं० १२८५ में तपा गच्छ के नाम से लोक में विख्यात हुआ । तपा गच्छ पट्टावली के उल्लेखानुसार जगच्चन्द्र सूरि ने साधुओं में व्याप्त शिथिलाचार देख क्रियोद्धार किया ?' इस सम्बन्ध में नाकोडाजी से उपलब्ध हस्तलिखित पट्टावली के शब्द इस प्रकार हैं : ___तत्प श्री जगच्चन्द्र सूरि (४४ वें पट्टधर) जिणे महापुरुष जावजीव प्रांबिल नो पच्चखारण कीघो, त्यारै आघाड़ नगर पधारया, त्यारे ' यः क्रियाशिथिलमुनिसमुदायं ज्ञात्वा गुर्वाज्ञया वैराग्यरसैक समुद्र चैत्रगच्छीय श्री देवभद्रोपाध्यायं सहायमादाय क्रियायामोग्यात् हीरला जगच्चन्द्र सूरिरिति ख्यातिभाक् बभूव । -पट्टावली समुच्चय (तपागच्छ पट्टावली) पृष्ठ ५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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