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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग ३ विस्तार के भय से अपने प्रायु, शरीर बल, बुद्धिबल आदि को दृष्टिगत रखते हुए गुणभद्रसूरि ने कुछ त्वरा (जल्दी) में संक्षेपतःही इस उत्तर पुराण को निबद्ध किया है।
वस्तुतः यह एक बड़ी भारी कमी रह गयी है, अन्यथा प्रादि पुराण की भांति उत्तर पुराण भी होता तो सम्पूर्ण पुरातन जैन इतिहास पर अपूर्व प्रकाश डालने वाला अन्य रत्न वृहदाकार पुराण के रूप में उपलब्ध होता । यद्यपि जिनसेनाचार्य का महापुराण की रचना करने का स्वप्न उनके दिवंगत हो जाने के कारण उनकी इच्छा के अनुरूप तो साकार नहीं हो सका तथापि भट्टारक गुणभद्र का प्रयास स्तुत्य ही रहा कि उन्होंने अपने गुरु के अधूरे रहे हुए कार्य को उत्तर पुराण की रचना कर पूरा कर दिया।
उत्तर पुराण प्रशस्ति में प्राचार्य गुणभद्र ने
"कवि परमेश्वरनिगदित गद्य कथा मातृकं पुरोश्चरितम्” इस पद से स्वीकार किया है कि उत्तर पुराण की रचना करते समय उन्होंने कवि परमेष्ठी द्वारा रचित 'वागर्थ संग्रह पुराण' से बड़ी सहायता ली। गुरणभद्र के समय तक "वागर्थ संग्रह पुराण" उपलब्ध था, यह भी इस उल्लेख से सिद्ध होता है।
प्राचार्य गुणभद्र की-"प्रात्मानुशासन" और "जिनदत्त चरित्र"--ये दो कृतियां उपलब्ध हैं। २६६ श्लोकात्मक आत्मानुशासन मुमुक्षुषों के लिए बड़ा उपयोगी है। 'जिनदत्त चरित्र' संस्कृत भाषा का चरित्रात्मक काव्य है।
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