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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
[ ७३७ कुल रूपी कमल को विकसित करने वाले सूर्य के प्रताप के समान जिनका प्रताप शत्रुओं को नष्ट कर देने के कारण चारों ओर प्रसत हो रहा था, जो चेल्ल केतन महासामन्त बंकेय का पुत्र, चेल्ल ध्वज का लघुभ्राता और स्वयं मयूर चिह्नांकित पताका वाला था, जो प्रचार-प्रसार-प्रभावना आदि के माध्यम से जैन धर्म की अभिवृद्धि करने वाला था-ऐसा यशस्वी लोकादित्य जिस समय बंकापुर में वनवासी देश का शासन कर रहा था। उस समय लोकादित्य के पिता बंकेय के नाम पर बसाये गये बंकापुर नामक सुन्दर नगर में शक सं० ८२० की प्राश्विन शुक्ला पंचमी के दिन भव्य जनों द्वारा पूजित यह उत्तर पुराण विश्व में जयवन्त रहे ।
इस प्रशस्ति से यही प्रकट होता है कि भट्टारकाचार्य गुणभद्र ने बंकापुर में शक सं० १२० तदनुसार वि० सं० ६५५ में उत्तर पुराण की रचना पूर्ण की।
प्राचार्य जिनसेन महापुराण को महाभारत के समकक्ष एक ऐसे पुराण का स्वरूप देना चाहते थे, जिसमें चौबीसों तीर्थंकरों के काल का प्रमुख पुरातन इतिहास विस्तार पूर्वक समाविष्ट हो जाय। महापुराण का पूर्वार्द्ध प्रादि पुराण तो पर्याप्त अंशों में जिनसेन की अभिलाषा के अनुरूप ही बन गया किन्तु महापुराण का उत्तरार्द्ध उनकी इच्छा के अनुरूप नहीं बन सका। इस बात को स्वयं गुणभद्र ने निम्नलिखित रूप में स्वीकार किया है :
इक्षोरिवास्य पूर्वार्द्धमेवाभाविरसावहम् ।
यथातथास्तु निष्पत्तिरिति प्रारभ्यते मया ।।(१४)।। प्रर्थात् :- इक्षुदण्ड के पूर्वार्द्ध खण्ड की ही भांति इस महापुराण का पूर्वार्द्ध (प्रादि पुराण) बड़ा सरस बन पड़ा है, उत्तरार्द्ध में तो इक्षुदण्ड के उपरि तन भाग की भांति येन केन प्रकारेण स्वल्पतर (विरस) रस की प्राप्ति हो सकेगी। यही समझ कर में इसकी रचना प्रारम्भ कर रहा हूँ।
प्रशस्ति में गुणभद्र ने उत्तर पुराण के जिनसेन के प्रादि पुराण के अनुरूप ही विशद विशाल स्वरूप न दे पाने के कारणों पर प्रकाश डालते हुए कहा है :
अतिविस्तर भीरुत्वादवशिष्ट संगृहीतममलधिया। गुणभद्र सूरिणेदं, प्रहीण कालानुरोधेन ।। (२०)।'
अर्थात् :- निरन्तर त्वरित गति से हीनता अथवा ह्रास की प्रोर उन्मुख एवं प्रवृत्त हो रहे काल के कुप्रभाव के परिणाम स्वरूप और महत्
' उत्तरपुराण प्रशस्ति ।
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