________________
प्राचार्य गुण भद्र
भट्टारक परम्परा के पंचस्तूपान्वयी सेनगण के आचार्य गुणभद्र की भी अपने समय के अग्रगण्य ग्रन्थकारों में गणना की जाती है। अपने प्रगुरु भट्टारक वीरसेन एवं गुरु जिनसेन के चरणचिह्नों का जीवनभर अनुसरण करते रहकर. प्राचार्य गुणभद्र ने भी जैन वांग्मय की सेवा के माध्यम से जिनशासन की उल्लेखनीय सेवा की।
अपने शिक्षा गुरु जिनसेनाचार्य के स्वर्गगमन पर उनके द्वारा प्रारम्भ किये गये 'महापुराण' लेखन के अपूर्ण रहे हुए शेष लेखन को गुणभद्र ने पूर्ण किया।
गुणभद्र वीरसेन के प्रशिष्य और दशरथसेन के शिष्य थे। दशरथसेन प्राचार्य जिनसेन (जयषवलाकार) के गुरु भ्राता थे। उत्तर पुराण प्रशस्ति के श्लोक सं० १४ में "शिष्य श्री गुणभद्र सूरिरनयोरासीज्जगद्विश्रुतः" इस पद से लोकसेन ने अपने गुरु गुणभद्र को जिनसेन और दशरथसेन, इन दोनों विद्वानों का शिष्य बताया है । इससे यही प्रकट होता है कि प्राचार्य गुणभद्र मुनि दशरथ गुरु के हस्त दीक्षित शिष्य ये भोर उन्होंने शास्त्रों और विद्याओं का ज्ञान अपने दीक्षा गुरु के गुरुभ्राताप्राचार्य जिनसेन से प्राप्त किया था।
जिनसेन के स्वर्गारोहण के पश्चात् प्राचार्य गुरणभद्र ने सब मिलाकर १६२० श्लोकों में प्रादि पुराण के ४३ से अन्तिम ४७वें पर्व तक-इन पांच पर्वो की रचना कर 'महापुराण' के पूर्वार्द 'पादिपुराण' को पूर्ण किया।
तदनन्तर गुणभद्र ने 'उत्तरपुराण' की रचना प्रारम्भ की। ८ (पाठ) हजार श्लोक प्रमाण उत्तर पुराण को रचना गुरणभद्र ने पूर्ण कर दी, परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि इसकी प्रशस्ति के २७ श्लोक ही वे लिख पाये थे कि प्रशस्ति पूर्ण करने से पहले ही वे स्वर्गवासी हो गये, इसीलिए 'उत्तर पुराण' की प्रशस्ति के २८ वें श्लोक से अंतिम ३७ वें श्लोक तक की रचना उनके शिष्य लोकसेन ने करके इस प्रशस्ति को पूर्ण किया। लोकसेन ने प्रशस्ति श्लोक संख्या ३१ से ३७ में लिखा है :
जिस समय कालवर्ष नामक राष्ट्रकूट वंशीय नरेश अपने सभी प्रमुख शत्रुनों को परास्त करने के पश्चात् पृथ्वी (के विशाल भाग) पर निष्कण्टक राज्य कर रहे थे। (उनके सामन्त) अपने प्रपितामह मुकुल के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org